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________________ 66 * मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ५०९ नग्नभाव सहअस्नानता, मुण्डभाव अदन्तधावन आदि परम प्रसिद्ध जो । केश, रोम, नख के अंगे शृंगार नहि, द्रव्य-भाव-संयममय निर्ग्रन्थ सिद्ध जो ॥ ९ ॥ " अर्थात् शरीर से दिगम्बर, मस्तक मुण्डित, स्नानभाव से पर तथा दतौन का एक टुकड़ा भी नहीं रखने वाले (अर्थात् वस्त्र, केश, स्नान और दतौन आदि), शरीर-प्रसाधन की प्रसिद्ध वस्तुओं का त्याग करने वाले, केश, रोम, नख या अंग पर लेशमात्र भी शृंगार न करने वाले साधक द्रव्य से और भाव से भी संयमी साधक पूर्ण सिद्ध निर्ग्रन्थ होता है। इस पूरे पद्य का आशय यह है कि “शरीर - सुकुमारता तथा देहविभूषा के लिए ऐसा निर्ग्रन्थ श्रमण किसी प्रकार की प्रवृत्ति न करे । " दंतपंक्ति की शोभा, वस्त्राभूषणों से अंग पर टीपटाप, बालों की सजावट और स्नान- विलेपन आदि को रसशास्त्र में शृंगार रस के उद्दीपक साधन बताये गए हैं। इसलिए शान्त रस सरोवर में निरन्तर डुबकी लगाने वाले साधक के जीवन में सहज नहीं होते। अतः नग्नत्व, मुंडन, अस्नान, अदन्तधावन आदि भाव अपने आप के प्रति वफादारी रखकर सहज रूप में साधने चाहिए । क्या इन साधारण जीवों को भी नग्न या मुंडित मान लिया जाय ? यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या लज्जा - निवारण या शील- रक्षा या संयम - यात्रा के लिये भी वस्त्र नहीं रखने चाहिए ? मस्तक मुँड़ाना ही केवल मुण्डित होने का अर्थ है, क्रोधादि चार कषायों पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष से रहितभाव से मुण्डित होना। क्या किसी भी हालत में नहाना या दाँत साफ नहीं करना चाहिए? इसी में ही सारी साधुता आ गई ? यदि ऐसा है तो बहुत-से आदिवासी लोग बिलकुल नंगधड़ंग रहते हैं या केवल एक लँगोटी लगाकर रखते हैं, मस्तक मुँड़ाकर भी अनेक वेषधारी कुव्यसनों में डूबे हुए घूमते हैं, स्नान या दतौन न करने वाले भी तिब्बत आदि प्रदेशों के लोभ या आलस्य मूर्ति व्यक्ति होते हैं, बालक और पशु भी नग्न रहते हैं, क्या इसी कारण उन्हें निर्ग्रन्थ मान लेना चाहिए ? १ Jain Education International इसका उत्तर तीसरे चरण में दिया गया है- “केश, रोम नख के अंगे शृंगार नहि ।” आशय यह है कि किसी व्यक्ति का मर्यादा सुरक्षित रखने की दृष्टि से (सभ्य समाज के बीच रहते हुए) सीधेसादे श्वेत वस्त्र, रक्षण के लिये पर्याप्त केश १. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ७०-७१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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