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________________ * मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान 8 ५०७ 8 चक्रवर्ती की रानी ने केश स्पर्श तथा चक्रवर्ती की समृद्धि को देखकर काम-भोग में लुब्ध होकर अगले जन्म में उसे पाने का निदान (नियाणा) कर चुका था।' ___ निदान से भौतिक विकास के साथ आध्यात्मिक घोर पतन इसी निदान के कारण इतने-इतने विकास के पश्चात् एक का अधःपतन और अनिदान के कारण दूसरा उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँचा। इतने बड़े अन्तर की चौड़ी खाई पड़ जाने का कारण था-निदानशल्य। इस निदान के पीछे पड़कर तो न जाने कितने ज्ञानियों, ध्यानियों, तपस्वियों और योगिजनों ने अपनी उच्च साधना को धूल में मिला दिया है। जैनागम और धर्मग्रन्थ इसके साक्षी हैं। जिस साधक को प्रभु-कृपा से, स्व-पुरुषार्थ से शुद्ध आत्मपद में अडोल श्रद्धा प्राप्त हुई हो, वही प्रबल मोहोत्पादक प्रलोभनकारी भौतिक सिद्धियों-उपलब्धियों के निदान से अलिप्त रह सकता है। ___भगवान महावीर की साधना में चारों कषायों पर विजय प्राप्त करने के अमोघ चित्र मिलते हैं। चण्डकौशिक विषधर के प्रचण्ड विष उगलने पर जरा भी कोप किये बिना वात्सल्यामृत सिंचन किया, यह क्रोधविजय का ज्वलन्त उदाहरण है। मगध-नरेश श्रेणिक की अनुपम भक्ति के बजाय, पूणिया श्रावक में उत्कृष्टता के दर्शन, मानविजयं का ज्वलन्त उदारहण है। गोशालक ने भगवान महावीर के दो शिष्यों पर उनकी कृपा से प्राप्त तेजोलेश्या का प्रहार करके उसका दुरुपयोग किया, फिर भी ‘गोशालक का कल्याण हो', इस प्रकार के सद्भावों में रमण, माया पर विजय का उदाहरण है तथा बार-बार दैवी तत्त्वों और आहारक-लब्धि, वैक्रिय-लब्धि आदि अनेक लब्धियों-सिद्धियों (चमत्कारपूर्ण अतिशयों) के उपस्थित होने पर भी उनसे निर्लिप्त रहे। उन पर जरा भी नजर न दौड़ाई। त्रिलोकीनाथ होते हुए भी पैदल विहार किया, सेवकों और भक्तों के अक्षय भण्डारों एवं भक्ति के बावजूद भी उन्होंने अमीरी भिक्षा ग्रहण करते रहे। इस प्रकार साधक जगत् को उन्होंने-'लोभ नहि, छो प्रबल सिद्धि-निदान जो' की दशा (लोभविजय) की शक्यता की प्रतीति करा दी। इस प्रकार सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के आत्म-विकास के सोपानों (गुणस्थानों) का साधनाक्रम, चारों कषायों पर सर्वांगी-सर्वतोमुखी विजय पूर्ण वीतरागता-प्राप्ति तथा शुद्ध आत्मा के मूल गुणरूप ज्ञानादि चतुष्टय की अनन्तता के दर्शन करा देता है। १. (क) “सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण (ख) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २२ में राजीमती का आख्यान (ग) देखें-वही, अ. १३ में चित्त-सम्भूतीय संवाद। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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