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________________ ४९२ कर्मविज्ञान : भाग ८ की कथा, और (४) राज - कथा - राजनैतिकों की युद्धोत्तेजक कथा । स्त्रियों के गीतों, अभिनयों, अंगचेष्टाओं और सौन्दर्य एवं सुन्दरियों का विकारोत्तेजक ढंग से वर्णन करना स्त्री-सम्बन्धी विकथा है । जैसे - महिला - सम्वन्धी विकारोत्तेजक वर्णन पुरुष को लागू होता है, वैसे ही पुरुष -सम्बन्धी विकारोत्तेजक वर्णन स्त्री को लागू होता है। वाह ! कितना बढ़िया साग बना है ! रायता कितना स्वादिष्ट है ! इस प्रकार रसनेन्द्रिय की आसक्तिजनक बातें करना भक्त - विकथा है । इसी प्रकार नये फैशन के कपड़े, गहने और नई प्रसाधन सामग्री, बंगला, फर्नीचर आदि भोगविलास के साधनों की प्रशंसा करने से परिग्रह, विलास और असंयम की प्रेरणा मिलती है; यह परिग्रह-कथा है। इसी प्रकार अमुक व्यक्ति या देश के साथ युद्ध करना चाहिए। युद्ध किये बिना उसकी अक्ल ठिकाने नहीं आयेगी । अच्छा हुआ, अमुक हार गया या अमुक जीत गया ! कोई हिन्दू है तो - ' इस दंगे में बहुत-से मुस्लिम मारे गये !' अथवा कोई मुस्लिम है तो - ' बहुत अच्छा हुआ, हिन्दुओं की चटनी हो गई ! इस प्रकार की युद्धोत्तेजक बातें करने से वैर - विरोध, क्रोध, आवेश, कुतूहल, हास्य, शोक या भय की वृत्ति पैदा होती है; जो स्व-पर दोनों के लिए घातक है। प्रमाद के ये पाँचों ही अंग आत्मारूपी सूर्य को ढक देते हैं। आत्मा के अनन्त वीर्य (बल) को धूल में मिलाकर उसे कायर और पामर बना देते हैं। इन सब का मूल है - मोह | मोहरहित होने के लिए पाँच प्रमादों द्वारा होने वाले आत्मविकासावरोधक मानसिक कोलाहल से दूर रहना चाहिए। ' चारों प्रकार के प्रतिबन्ध भी वीतरागता -प्राप्ति में बाधक व्यापक वीतरागता के लिए प्रतिबन्ध भी बाधक ही है । वह आत्म-शान्ति को टिकने नहीं देता। वह प्रतिबन्ध भी चार प्रकार का है- द्रव्य का, क्षेत्र का, काल का और भाव का। (१) द्रव्य-प्रतिबन्ध - मुझे अमुक वस्तु, व्यक्ति, संस्था या सम्प्रदाय आदि हो तभी मैं अपना विकास कर सकता हूँ, अन्यथा नहीं । (२) क्षेत्र - प्रतिबन्ध - मुझे अमुक क्षेत्र ( कार्य-क्षेत्र या विचरण - क्षेत्र; गुजरात, राजस्थान, बंगाल, उत्तर प्रदेश या बिहार आदि प्रान्तों में से एक) अच्छा लगता है, दूसरा नहीं । अथवा मैं मानव-जीवन के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में किसी एक क्षेत्र में ही काम कर सकता हूँ, दूसरे में नहीं । (३) काल - प्रतिबन्ध - मैं अमुक अवस्था, अमुक उम्र या अमुक समय पर ही अमुक कार्य या बात कर सकता हूँ, दूसरे समय आदि में नहीं । (४) भाव - प्रतिबन्ध - मैं अमुक भावों, संयोगों या परिस्थितियों में ही यह साधना कर सकूँगा या सत्याचरण कर सकूँगा, दूसरे भावों या संयोगों आदि में नहीं । ये और इस प्रकार के द्रव्यादि प्रतिबन्ध-चतुष्टय साधक के आध्यात्मिक अभ्युदय या स्वतंत्र आत्म-विकास में १. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ३९-४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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