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________________ ॐ ४७४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ मानसिक प्रवृत्ति के साथ आत्म-स्थिरता हो जाने पर यानी शुद्ध आत्मा की स्मृति जुड़ जाने पर उस साधक के संयम-यात्रा पथ में घोर से घोर उपसर्ग या परीषह है, अथवा विपत्ति, कष्ट या विघ्न-बाधाओं के आने पर भी उसकी आत्म-स्थिरता अडोल रहेगी। उस कार्य की समाप्ति तक आत्म-स्मृति सतत बनी रहती है, प्रचण्ड आत्म-विश्वास के साथ वह टिका रहेगा। आत्म-स्थिरता वाला साधक घोर उपसर्ग-परीषहों के समय भी अविचल रहता है ___आत्म-स्थिरता वाला साधक अनुकूल या प्रतिकूल कैसा भी परीषह आए; ' समभावपूर्वक शान्ति, धैर्य और आत्म-विश्वास के साथ एकीकृत धर्ममार्ग पर डटा रहता है, धर्म-पालन के लिए वह बड़े से बड़े कष्ट को हँसते-हँसते सह लेता है, किसी भी हालत में धर्ममार्ग से भ्रष्ट नहीं होता। भय और प्रलोभन के समय वह वृत्ति के अधीन न होकर समभावपूर्वक उस समस्या को हल कर लेता है, एक इंच भी अपनी प्रतिज्ञा से डिगता नहीं।' मुमुक्षु जीवन में आत्म-स्थिरता की आवश्यकता क्यों ? अतः वीतरागता अथवा सर्वकर्ममुक्ति के पथिक के लिए आत्म-स्थिरता की कदम-कदम पर आवश्यकता है। संसार में जितनी भी भूलें होती हैं, फिर वे व्यावहारिक या सामाजिक आदि क्षेत्रों में हुई हों या आध्यात्मिक या नैतिक-धार्मिक क्षेत्र में, सर्वत्र आत्म-स्थिरता का अभाव ही उनका मूल. कारण है। अज्ञानी और प्रमादी व्यक्ति प्रायः आत्म-स्थिरता = आत्म-स्मृति का भान खो बैठते हैं। मिथ्याभिमानी अथवा अष्टविध मदग्रस्त जीव में जब तक आत्म-स्थिरता नहीं होगी, तब तक बाह्य रूप से ग्रहीत व्रत, नियम, त्याग-प्रख्याख्यान में बार-बार भूलें, गलतियाँ, अतिचार (दोष) होते रहेंगे, जबकि आत्म-स्थिरता वाले साधक के रग-रग में देह-पर्यन्त सतत आत्म-स्मृति रहने से वह मिथ्याभिमानियों, साम्प्रदायिक मोहाविष्ट लोगों के बीच में रहकर भी अपनी मृदुता-नम्रता और सरलता के अमोघ-शस्त्र का इस्तेमाल करके विजयी बन जाएगा। बहुत-से साधना-प्रिय व्यक्ति भी व्यक्तिगत स्वार्थ, मोह या लोभ के आते ही आत्म-स्थिरता खो बैठते हैं। बाहर से विचार, वाणी और व्यवहार से स्नेह का प्रदर्शन होते हुए भी अन्तर में माया (कपट) का जोर व्याप्त हो जाने पर आत्म-स्थिरता खो बैठना मुमुक्षुसाधक की हार है। १. (क) आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योग नी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यन्त जो। घोर परीषह के उपसर्ग भये करी, आवी शके नहीं, ते स्थिरतानो अंत जो। अपूर्व.॥४॥ (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १५, ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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