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________________ ॐ ४७२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ अमुक्त और मोक्षमार्ग, इनके विषय में विपरीत मान्यता हो जाती है।' दृष्टिमोह सत्य के नाम पर कदाग्रह, पक्षपात और स्वत्वमोह की पकड़ में डाल देता है। क्रोध आदि चार कषायों तथा हास्य, भय आदि नौ नोकषायों का मूल भी दृष्टिमोह है। अतः दृष्टिमोहरूपी सागर को पार किये बिना वैभाविक प्रवृत्तिरूप चारित्रमोह का क्षय करना आकाश-कुसुम के समान है। अतः कषायादि वैभाविक प्रवृत्तियों से बचने के लिये दृष्टिमोह को निर्मूल करना अत्यावश्यक है। ___ दृष्टिमोह दूर होने पर केवल चैतन्य का ज्ञान अन्तःकरण में बद्धमूल हो जाए तो काम, क्रोधादि जो शत्रु साधक का आध्यात्मिक विकास रोकते हैं, उनका जोर ठंडा पड़ जाएगा। किन्तु चारित्रमोह का बल कुछ समय तक क्षीण दिखाई दें, फिर प्रबल वेग के साथ साधक पर धावा बोलकर उसे पछाड़ दे, ऐसी कृत्रिम चारित्रमोह क्षीणता या क्षणिक क्षीणता से सावधान रहना चाहिए। अतः चारित्रमोह. की क्षीणता स्थायी होनी चाहिए। यानी उक्त चारित्र के प्रकाश में केवल चैतन्य का गहन निरीक्षण अर्थात् अपरोक्ष अनुभव कर सके। ऐसा देहभिन्न केवल. आत्मा (चेतन) का व्यवहार्य साक्षात्कार होना चाहिए। वह साधक के अपरोक्ष अनुभव की क्रिया में झलकना चाहिए। केवल चैतन्य के ज्ञान का फल शुद्ध स्वरूप का ध्यान है , ___ निष्कर्ष यह है कि दृष्टिगोचर के अन्त से शुद्ध चैतन्य का अनुभवात्मक ज्ञान होने पर चारित्रमोह क्रमशः क्षीण होना अवश्यम्भावी है। अतएव उस सम्यग्ज्ञान के बाद साधक की नस-नस में उसी शुद्ध चैतन्य की अमृतधारा का आचरण, चाहे देर से ही हो, होगा। अनात्म आचरण तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में केवल चैतन्य के ज्ञान का फल ध्यान होगा। यानी ऐसी दशा का एकाग्रतापूर्वक ध्यान यानी शुद्ध स्वरूप का स्थायी चिन्तन होना या प्रतिक्षण ध्यान रखना अनिवार्य है। तभी केवल शुद्ध चैतन्य का = शुद्ध आत्म-स्वरूप का भाव रग-रग में ओतप्रोत होगा। ऐसे शुद्ध आत्म-स्वरूप के ध्यान में लीन साधक को विषय-विकार आकृष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि वह आत्मानुभव का रसास्वादन कर चुका होता है। १. (क) अदेवे देवबुद्धिः स्यादधर्मे धर्मधीरिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्या ख्याता देवादिमूढ़ता॥ -पंचाध्यायी (उ.) (ख) लोहय-वेदिय-सामाइएसु तह अण्णदेवमूढत्तं। __-मूलाचार, गा. २५६ (ग) देवतामूढ-लोकमूढ-समयमूढ़-भेदेन मूढ़त्रयं भवति। --द्रव्यसंग्रह, टीका ४१/१६६ २. (क) दर्शनमोह व्यतीत थई उपज्यो बोध जे, देहभिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो। एथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकीए, वर्ते एवं शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो॥अपूर्व.॥३॥ (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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