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________________ 8 मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान * ४६३ ॐ गया है। यह अन्तरात्म-दशा से लेकर परमात्म-दशा तक की उत्तरोत्तर भूमिकाओं का आर्षदर्शन है। इसे ध्यान में लेकर क्रमशः गति-प्रगति, सम्प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा करते रहने से साधक एक दिन अवश्य ही मुक्ति के सर्वोच्च प्रासाद तक पहुँच सकता है, स्वयं परमात्म-दशा प्राप्त कर सकता है।' इस दृष्टि से यहाँ चतुर्थ गुणस्थान से आरोहण करके साधक क्रमशः चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण सिद्धि के सर्वोच्च शिखर पर कैसे पहुँच सकता है ? इसका वर्णन किया गया है। प्रथम सोपान : बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थता : सर्वसम्बन्धों के बन्धन की उच्छेदक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती साधक को जब यह तथ्य स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि आत्मा से भिन्न जो सजीव या निर्जीव पर-भाव हैं-पर-पदार्थ हैं, उनके साथ जितना-जितना सम्बन्ध राग-द्वेषात्मक सम्बन्ध अथवा मनोज्ञामनोज्ञता का सम्बन्ध होता है, उतना-उतना मोक्ष (सर्वकर्ममुक्तिरूप या स्वरूपस्थितिरूप मोक्ष) से व्यक्ति दूरातिदूर होता जाता है। इसके विपरीत जितना-जितना पर-भावों एवं विभावों से राग-द्वेषात्मक सम्बन्ध टूटता जाता है, उतना-उतना साधक मोक्ष के निकट पहुँचता जाता है। इसलिए चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि-साधक में सर्वप्रथम आत्मा से भिन्न पदार्थों के साथ जो तीक्ष्ण, गाढ़ एवं चिक्कणं सम्बन्ध हो गया है, वह कैसे टूटे? इसकी तीव्र उत्कण्ठा जागती है। क्योंकि राग-द्वेष मोहात्मक जितने भी सम्बन्ध हैं, चाहे वे परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्मसंघ, प्रान्त आदि किसी भी घटक के साथ हों, वे ही शुभाशुभ कर्मबन्ध के कारण हैं। कई बार तो वे मधुर सम्बन्ध या जिन्हें प्रेम-सम्बन्ध कहा जाता है, मोहरूप, ममत्वरूप या आसक्तिरूप होकर घोर कर्मबन्ध के कारण बन जाते हैं। कई बार वे ही राग-मोहात्मक प्रेम-सम्बन्ध स्वार्थ, द्वेष, दुर्भावना एवं वैर-विरोध के कारण घोर अशुभ कर्मबन्ध के हेतु हो जाते हैं। अतः मुमुक्षु आत्मार्थी साधक को सभी बन्धनों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से उनमें राग, द्वेष, मोह, स्वार्थ, घृणा, ईर्ष्या, आसक्ति, ममत्व आदि विकारों और विभावों के विष को सर्वप्रथम दूर करके मुक्ति के प्रथम सोपान पर आरोहण करना चाहिए। . बन्धनों को तोड़ने के लिए ग्रन्थमुक्त होने के विवेकसूत्र और यह बात भी सत्य है कि जब तक सम्बन्धों में से वाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों (परिग्रहों) को छोड़ा या तोड़ा नहीं जाएगा, तव तक शुभाशुभ कर्मों से मुक्ति १. सिद्धि के सोपान' (विवेचक : मुनि श्री संतवाल जी म.) से भाव ग्रहण. पृ. १-२ २. . अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थइशुं वाह्यान्तर-निर्ग्रन्थ जो। सर्व-सम्बन्धनुं वन्धन तीक्ष्ण छेदीने. विचरशुं कव महापुरुषने पंथ जो॥ -पद्य १ के आधार पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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