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________________ @ मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ॐ ४५१ & से सहने ये उनके पूर्ववद्ध सभी कर्मों के वन्धन टूट गए। वे अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। इस प्रकार गजमुकुमाल मुनि ने कुछ समय की संयम-पर्याय में ही भव का सदा के लिए अन्त कर दिया और अन्तःक्रिया में सफल हुए।' तृतीय अन्तःक्रिया तीसरी अन्तःक्रिया इस प्रकार है-कोई पुरुप अत्यधिक सघन कर्मों के सहित मनुप्य-भव को प्राप्त हुआ। फिर वह मुण्डित होकर गृह-त्यागकर अनगारधर्म में प्रविष्ट होता है तथा संवर-वहुल, संयम-बहुल और समाधि-बहुल होकर रूक्ष, तीरार्थी, उपधानवान, दुःखक्षयकर्ता एवं वाह्यान्तर तपस्वी होता है अर्थात् तृतीय अन्तःक्रिया साधक अत्यधिक सघन कर्मों के सहित जन्म लेता है और दीर्घकालिक संयम-साधना में तीव्र वेदना भी (समभावपूर्वक) भोगता है एवं समस्त कर्मों का अन्त (नाश) कर देता है। ___ इस अन्तःक्रिया में कर्मों की सघनता होने से अन्तःक्रिया साधक के उस प्रकार का घोर तप भी होता है तथा उस प्रकार की तीव्र वेदना भी होती है.। इस प्रकार का अन्तःक्रिया साधक व्यक्ति के दीर्घकालिक साधु-पर्याय का पालन करके वह सिद्ध-वुद्ध-मुक्त परिनिर्वाण को प्राप्त तथा सर्वदुःखों का अन्त करता है। तात्पर्य यह है कि इस अन्तःक्रिया में अत्यधिक भारी कर्म भी होते हैं, जिन्हें सर्वथा क्षय करने के लिए दीक्षा-पर्याय भी लम्बी होती है। वह दीर्घकाल तक वेदना का अनुभव करता है, उपसर्ग और परीषह (समभावपूर्वक) सहन करता है। इस प्रकार पूर्ववद्ध कर्मों के प्रवल बन्धन को तोड़ डालता है और अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है-सनत्कुमार चक्रवर्ती। जिन्होंने दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का पालन किया, विविध परीषह और उपसर्गों के कष्ट भोगे और समस्त कर्मों का अन्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। सनत्कुमार चक्रवर्ती : दीर्घकर्मा-दीर्घसंयमकाल वाला हस्तिनापुर के अश्वसेन नृप और सहदेवी रानी के आत्मज सनत्कुमार अपने पिता के दिवंगत हो जाने के पश्चात् हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठे। अपने १. (क) अन्तकृद्दशांगसूत्र, वर्ग ३, अ. ८ (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भाव ग्रहण, पृ. १७ २. (क) अहावरा तच्चा अंतकिरिया-महाकम्म-पच्चायाते यावि भवति। से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए. (संजमवहुले. संवरवहुले समाहिवहुले लूहे तीपट्टी उवहाणवं दुक्खखवे तवस्सी। तस्स णं तहप्पगारे तवे भवति, तहप्पगाग वेयणा . भवति। तहप्पागारे पुरिसजाते) दीहेणं परियाएणं सिझति (वुज्झति. मुच्चति परिणिव्वाति) सव्वदुक्खाणमंतं करेति। जहा से सणंकुमारे राया चाउत चक्कवटी-तच्चा अंतकिरिया। -स्थानांग, स्था. ४, उ. १, सू. १/३ (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भाव ग्रहण, पृ. १८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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