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________________ ॐ मोक्षप्रापक विविध अन्त:क्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४४९ ॐ एक वार भरत चक्रवर्ती अपने शीशमहल में वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर वैट थे। सहया उनके दाहिने हाथ की अंगूठी भूमि पर गिर पड़ी। उन्हें वह अंगुली शोभाहीन प्रतीत होने लगी। फिर उन्होंने एक-एक करके सभी आभूपण उतार डाले। वाहरी आभूपण हटत ही शरीर-सौन्दर्य फीका लगने लगा। सोचा-क्या इस शरीर की शोभा सुन्दरता इन वाह्य आभूपणों से ही है? शरीर तो नाशवान्, असार और अनित्य है, इसके वाह्य सौन्दर्य का क्या मूल्य है ? आन्तरिक सौन्दर्य ही वास्तविक है, ग्थायी है, वह है आत्म-गुणों का-आत्म-भावों का ! यों अन्तर्मुखी वनकर चिन्तन करते-करते उन्हें केवलज्ञान (केवलवोधि) की प्राप्ति हुई। भावचारित्र की परिणति हो गई। तदनन्तर मुनिवेश धारण करके दीर्घकाल तक विचरण कर वे सुखपूर्वक अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। ___ इस कथा पर से स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्ती अनासक्त वृत्ति के अल्पकर्मा थे। उन्हें मोक्ष-प्राप्ति के लिए अन्तःक्रिया करने में न तो कठोर या दीर्घकालिक तप करना पड़ा और न ही घोर उपसर्ग या तीव्र वेदना सहनी पड़ी। सुखपूर्वक दीर्घकाल तक संयम-यात्रा करते हुए वे मोक्ष पहुँचे। दूसरी अन्तःक्रिया दूसरी अन्तःक्रिया यह पहली अन्तःक्रिया से ठीक विपरीत है। इस अन्तःक्रिया में कोई पुरुष बहुत भारी कर्मों के साथ मनुष्य-भव को प्राप्त होता है। फिर वह द्रव्यभाव से मुण्डित होकर घर-बार छोड़कर अनगारधर्म में प्रव्रजित हो जाता है। तत्पश्चात् संयम-बहुल, संवर-बहुल और समाधि-बहुल होकर रूक्ष (स्नेहराग से और आहारासक्ति से रहित) बना हुआ, वह तीरार्थी, उपधानवान्, दुःखक्षयकर्ता एवं वाह्य आभ्यन्तर तपस्वी होता है। (इस प्रकार की अन्तःक्रियाकर्ता अल्पसमय की संयम-साधना में) घोर तपश्चरण और घोर (तीव्र) वेदना होती है, जिसे समभावपूर्वक सहन करके वह पुरुष अपनी अल्पकालिक साधुपर्याय में सर्वकर्मों का क्षय करके सिद्ध होता है, वुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर डालता है। तात्पर्य यह है कि इस अन्तःक्रिया में पूर्ववद्ध कर्मों की सघनता और प्रवलता होती है, किन्तु इस अन्तःक्रिया के साधक द्वारा उग्र तपश्चरण, कठोर उपसर्ग एवं परीषह का समभावपूर्वक सहन एवं निर्मल शुक्लध्यान की ऐसी तीव्र चोट पड़ती है १. (क) 'आवश्यक मलयवृत्ति में भरत चक्रवर्ती की कथा . (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा से भावांश ग्रहण, पृ. १५-१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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