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________________ * मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ॐ ४४१ 8 मोक्षोपदेशक अथवा मोक्षाभिमुख वही हो सकता है जो संयम-धन से युक्त हो, पूजा-प्रतिष्ठा, नामना-कामना, प्रसिद्धि या यशःकीर्ति में जो बिलकुल दिलचस्पी न रखता हो, जो विषयभोगों की वासना से रहित हो, जो इन्द्रियों और मन का स्वेच्छा से दमन (नियंत्रण) करता हो, अपनी महाव्रतादि की प्रतिज्ञा पर जो अटल हो, देवों और नरेन्द्रों आदि द्वारा दिये गए वैषयिक प्रलोभनों से जरा भी विचलित न होकर अपने मन, नियम एवं संकल्प पर दृढ़, अटल और अविचल रहता हो, जो मैथुनादि इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों से विलकुल निवृत्त-विरत हो, ऐसा जीवन्मुक्त साधक ही मोक्षमार्ग का अनुशासक या मोक्षाभिमुख होता है। ऐसा मोक्षाभिमुख जीवन्मुक्त साधक स्त्री प्रसंग में कदापि लीन या ग्रस्त नहीं होता। वह आस्रव द्वारों या संसारगमन द्वारों (पंचेन्द्रिय विषयभोगों के द्वारों) को छिन्न-भिन्न करने वाला छिन्न स्रोत होता है। विषयभोगों में प्रवृत्त न होने के कारण वह स्वस्थचित्त होता है। ऐसे अनुपमा गुणों से युक्त महापुरुष ही अनुपम भावसन्धि (कर्मक्षयरूप मुक्ति या अन्तःक्रिया के सुअवसर की प्राप्ति) कर लेते हैं।' छिन्नस्रोत, खेदज्ञ एवं सर्वजीवों का आलोक ही अन्तःक्रिया करने में सक्षम . ऐसा अन्तःक्रिया तत्पर मोक्षाभिमुख साधक अनन्यसदृश संयम या वीतराग प्ररूपित धर्म का मर्मज्ञ होता है। अथवा अनन्यसदृश धर्म या संयम का पालन करने में मुमुक्षु साधक को कितने खेदों, उपसर्गों, परीषहों या आफतों का सामना करना पड़ता है, इसका वह ज्ञाता अनुभवी होता है। ऐसा मोक्षाभिमुख साधक मन-वचन-काया से किसी भी प्राणी के प्रति वैर-विरोध नहीं रखता, न ही करता है अपितु सबके प्रति मैत्रीभावना, गुणग्राहकता, मुदिता (प्रमोद), अभिन्नता या आत्म-तुल्य भावना रखता है, करुणा एवं माध्यस्थ्य भावना भी उसके अन्तःकरण में अठखेलियाँ करती रहती हैं। वह महान् साधक चित्त को शान्त एवं मैत्रीभावना से ओतप्रोत रखता है, वचन से किसी के प्रति अपशब्द या कटुशब्द का प्रयोग नहीं करता, अपितु हित, मित, पथ्य, तथ्य बोलता है। शरीर से भी वह संयमविरोधी कोई भी चेष्टा या व्यवहार नहीं करता। १. (क) अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासए। अणासए जए दंते, दढे आरयमेहुणो॥११॥ (ख) णीवारे ण लीएज्जा, छिन्नसोए अणाविले। अणाइले सया दंते, संधिपत्ते अणेलिसं॥१२॥ (ग) देखें-इन दोनों गाथाओं का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९६८ २. (क) अणेलिसस्स खेयन्ने, ण विरुज्झेज्ज केणई। मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं॥१३॥ (ख) देखें-इस गाथा का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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