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________________ मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४३७ धर्माराधना न करने वाले को सम्बोधि और शुभलेश्या की प्राप्ति अतिदुर्लभ निष्कर्ष यह है कि जो जीव मनुष्य जन्म पाकर भी देवदुर्लभ धर्माराधना या संयम-पालन नहीं करता, नवीन पुण्य भी अर्जित नहीं करता, वह संयम - पालन या धर्माराधन से रहित पशुतुल्य मानव इस देवदुर्लभ मानव-शरीर से या उत्तम धर्म से भ्रष्ट होकर इस संसार की अटपटी कुगतियों और कुयोनियों में भटकता है। उसे एक बार मानव-शरीर से इस प्रकार भ्रष्ट होने पर दूसरी तिर्यंच आदि गतियोंयोनियों सम्बोधि-सम्यग्दृष्टि का पाना तथा सम्यग्दृष्टि (सम्बोधि ) पाने के योग्य शुभ लेश्या (आत्मा या अन्तःकरण की शुद्ध परिणति ) की प्राप्ति भी अत्यन्त कठिन है । अथवा तेजस्वी मानव-शरीर उसे प्राप्त नहीं होता, जिसने धर्मरूपी बीज नहीं बोया है। तब फिर आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल में जन्म, सर्वेन्द्रियों की पूर्णता आदि सामग्री का मिलना तो और भी दुर्लभ है। इस परिपूर्ण सामग्री की प्राप्ति और अभ्युदय के बिना संर्वकर्मक्षयरूपा मोक्ष-प्राप्ति के लिये अन्तः क्रिया करना तो दुर्लभतम है। ' अन्तःक्रिया (सर्वकर्मों का अन्त) करने के बाद. पुनः जन्म-मरणादि नहीं होता 'सूत्रकृतांगसूत्र' यह तथ्य भी प्रकाशित किया गया है - जो मनुष्य मोक्षप्राप्तिरूपा लोकोत्तर अन्तः क्रिया कर लेता है, यानी सर्वकर्मों का अन्त (क्षय) कर 'डालता है, वह संसार में न तो पुनः जन्म ग्रहण करता है और न ही मरता है । संसार में उसका पुनरागमन नहीं होता, क्योंकि कर्मबन्ध का सदा के लिए सर्वथा उच्छेद करने के बाद वह नया कर्म नहीं करता । और जो मनुष्य नये कर्म का बन्ध नहीं करता, उसके पुनः जन्म-मरण करने का प्रश्न ही नहीं उठता। अन्तःक्रियाकृत् जो मानव इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाते हैं, उनके लिए पुनः जन्म लेने की बात ही नहीं सोची जा सकती। जिसका पुनः जन्म ही नहीं होता, उसके मरण के बारे में तो स्वप्न में भी नहीं सोचा जा सकता, क्योंकि उसके कर्मबीज नष्ट हो चुके हैं। 'दशाश्रुतस्कन्ध' की पाँचवीं दशा में कहा गया है - " जैसे बीज जल जाने पर उसमें से कोई अंकुर बिलकुल नहीं फूटता ( उत्पन्न होता ), वैसे ही कर्मबीज जल जाने पर संसाररूप अंकुर उत्पन्न नहीं होता ।" ' सूत्रकृतांग' में भी पुन: इस तथ्य को दोहराया गया है-जो महान् आत्मा इस संसार में पुनः न आने के लिए पुनरागमन से रहित होकर मोक्ष में पहुँच गए हैं, वे मेधावी ( केवलज्ञानी) महापुरुष क्या यहाँ लौटकर १. (क) इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लहा । दुल्लहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥ - सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १५, गा. १८ (ख) देखें - इस गाथा का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९७३ ९७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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