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________________ ॐ मोक्षप्रापक विविध अन्त:क्रियाएं : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता - ४३५ ॐ प्रकर्पता में ही सम्भव है तथा समग्र कर्म निर्मूल हुए विना विदेहमुक्ति (निर्वाणप्राप्ति) नहीं हो सकती। तथाविध मनुष्य के सिवाय नारकादि २३ दण्डकवर्ती जीवों में कदाचित् किमी नारक को नैयिकपर्याय में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव में कदाचित् सम्यग्दर्शन का प्रकर्प हो भी जाए, किन्नु सम्यग्ज्ञान के प्रकर्प की योग्यता तथा सम्यकचाग्त्रि के परिणाम नाग्कपर्याय में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्यंकि नारक-भव का एमा हा स्वभाव है। ___ इयी प्रकार नारक जीव यदि नरक से उवृत्त होकर (निकलकर) अमुग्कुमागं में लकर नितकुमारों में, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियों में, पंचेन्द्रिय-तिर्यंचा में तथा वाणव्यन्तर, ज्योतिप्क एवं वैमानिक देवों में उत्पन्न हो गया हो, तो भी वह वहाँ मोक्ष-प्राप्तिम्पा लोकोत्तर अन्तःक्रिया नहीं कर सकता। इसका कारण भी वही भव-म्वभाव है। मनुष्यपर्याय में सर्वकर्मक्षयकर्ता ही अन्तःक्रिया करता है ___ हाँ, कोई नारकीय जीव नरक से निकलकर मनुष्यपर्याय में आया हो तथा जिसे मनुष्यत्व आदि की परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो गई हो, वह मनुष्य पूर्वोक्त प्रकार से क्रमशः समस्त कर्मों का सर्वथा क्षय करके अन्तःक्रिया कर सकता है, किन्तु नरक से मनुष्यपर्याय में आया हुआ वह जीव भले ही मनुष्य हो, तब तक अन्तःक्रिया नहीं कर पाता, जव तक उसे पूर्वोक्त प्रकार की तथाविध परिपूर्ण सामग्री प्राप्त नहीं होती और जिसके सर्वकर्मों का क्षय नहीं हुआ हो। - इसी प्रकार मनुष्यपर्याय में आये हुए असुरकुमारादि देवों से लेकर वैमानिक देवों तक के जीव, जिन्हें पूर्वोक्त तथाविध परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो जाती है, वे समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष-प्राप्तिरूपा लोकोत्तर अन्तःक्रिया कर सकते हैं। सो वात की एक बात है कि नारकों या चारों प्रकार के देवों में से निकलकर कोई जीव मनुष्यपर्याय में आकर ही तथा मनुष्यपर्याय में भी तथारूप परिपूर्ण-सामग्री प्राप्त एवं सर्वकर्मक्षयकर्ता मनुष्य ही मोक्ष-प्राप्तिरूपा लोकोत्तर अन्तःक्रिया कर सकते हैं। . 'सूत्रकृतांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है कि तीर्थंकर भगवान के लोकोत्तर प्रवचन से मैंने (सुधर्मास्वामी ने) सुना है कि मनुष्य ही सम्यग्दर्शन आदि की आराधना करके कृतकृत्य हो जाते हैं, यानी सर्वकर्मक्षय करके, मोक्ष प्राप्त करके कृतार्थ हो जाते १. देखें-प्रज्ञापना. खण्ड २, पद २०, सू. १४०८/१-३ एवं उनके विवेचन (आ. प्र. स.. . व्यावर), पृ. ३८० २. देखें-वही, खण्ड २, पद २०, सू. १४०८/३ का विवेचन (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ३८१ ३. देखें-वही, खण्ड २, पद २०, सू. १४०९ का विवेचन, पृ. ३८०-३८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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