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________________ ॐ मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४ ४३३ परम्परा से लोकोत्तर अन्तः क्रिया कर सकता है ? इससे आत्मार्थी या मुमुक्षु जीवों को यह भी प्रेरणा मिल सकती है तथा उनकी निराशा अथवा हीन भावना दूर हो सकती है कि अमुक गति, अमुक भव या अमुक योनि से अथवा इस भव में नहीं तो अगले जन्म या जन्मों में लौकिक शुभ अन्तः क्रिया होने पर मनुष्य जन्म की प्राप्ति और उसमें भी जन्म-मरण का अन्त करने वाली क्रिया करने से लोकोत्तर अन्तःक्रिया हो सकती है और उससे मोक्ष अवश्यमेव प्राप्त हो सकता है। जिन जीवों की लौकिक अन्तःक्रिया शुभ नहीं होती, उन्हें अगले जन्म में मनुष्य-भव की प्राप्ति और लोकोत्तर अन्तःक्रिया करने का चांस नहीं मिल सकता । परन्तु शास्त्रकार का जोर या रुझान अन्ततोगत्वा मोक्ष-प्राप्तिरूप लोकोत्तर अन्तःक्रिया के प्रति ही है । ' अन्तःक्रिया : स्वयं पुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है, माँगने से नहीं 'प्रज्ञापनासूत्र' में वर्णित लौकिक शुभ-अशुभ अन्तः क्रिया तथा लोकोत्तर अवश्य मोक्ष-प्राप्तिरूप अन्तःक्रिया से श्रमण - संस्कृति का यह तथ्य भी ध्वनित होता है कि लौकिक शुभ अन्तःक्रिया अथवा लोकोत्तर मोक्ष - प्राप्तिरूप अन्तः क्रिया कोई विशेष प्राणी स्वयं के सत्-पुरुषार्थ-पराक्रम से ही प्राप्त कर सकता है, दूसरा कोई भगवान, परमेश्वर, देवी-देव या कोई भी साधु-साध्वी या अन्य प्रबल व्यक्ति उसके बदले न तो शुभ लौकिक अन्तःक्रिया कर सकता है और न ही लोकोत्तर मोक्ष प्राप्तिकारिणी अन्तः क्रिया । अर्थात् एक व्यक्ति के बदले दूसरा कोई भी व्यक्ति दोनों प्रकार की अन्तःक्रिया नहीं कर सकता है। हाँ, उसे शुभ या शुद्ध अन्तः क्रिया के लिए अरिहन्त केवली वीतराग परमात्मा, सिद्ध (मुक्त) परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय या साधु-साध्वीगण आदि से प्रेरणा, मार्गदर्शन या समाधान आदि प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु अन्तः क्रिया के लिए उसे ही गति - प्रगति करनी होगी। दूसरे किसी भी व्यक्ति, भगवान या देवी- देव आदि से माँगने या प्रार्थना करने से भी शुभ लौकिक या मोक्ष-प्राप्तिरूप शुद्ध अन्तःक्रिया प्राप्त नहीं हो सकती, न ही कोई दे सकता है। व्यक्ति स्वयं ही अपने सत्पुरुषार्थ से उभय अन्तःक्रिया प्राप्त कर सकता है। 'प्रज्ञापनासूत्र' के बीसवें पद के प्रथम अन्तः क्रियाद्वार में मोक्ष - प्राप्तिरूप अन्तःक्रिया के विषय में प्रश्न किया गया है- "भंते ! क्या जीव अन्तःक्रिया करता है ?” उसका समाधान किया गया है- "कोई जीव अन्तःक्रिया करता है, कोई नहीं करता।"२ १. देखें - प्रज्ञापनासूत्र, खण्ड २, पद २० का प्राथमिक एवं प्रथम अन्तः क्रियाद्वार का विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. ३७५, ३७९ २. जीवे णं भंते ! अंतकिरिया करेज्जा ? गोयमा ! अत्थेiइए करेज्जा, अत्थेगइए णो करेज्जा । एवं रइ जाव वेमाणिए । Jain Education International - प्रज्ञापनासूत्र, पद २०, खण्ड २, सू. १४०७/१-२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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