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________________ ® मोक्षप्रापक विविध अन्त:क्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता * ४३१ ॐ अन्तःक्रिया का स्वरूप : लौकिक और लोकोत्तर दृष्टि से सामान्यतया अन्तःक्रिया शब्द का लोक-प्रचलित शब्दशः अर्थ किया जाता हैअन्तिम क्रिया। मृत्यु के बाद निर्जीव शरीर का जब दहन या दफन किया जाता है, उस अन्तिम संस्कार को लोक-व्यवहार में अन्तःक्रिया या अन्त्येष्टि क्रिया कहा जाता है। यहाँ उस अर्थ में अन्तःक्रिया विवक्षित नहीं है। 'प्रज्ञापनासत्र' के २0वें अन्तःक्रिया पद में वृत्तिकार मलयगिरि ने अन्तःक्रिया पद के सूत्रानुरूप दो अर्थ किये हैं-पहला अर्थ है एक-भव के शरीरादि से छूटना-मरना (जैनागमों में देवों के मरण के लिये ‘च्यवन', मनुष्यों के मरण के लिए 'कालगत' और नाटकों के मरण के लिये 'उद्वृत्त' शब्द प्रयुक्त हुआ है)। दूसरा अर्थ है-मनुष्य-भव का सदा-सदा के लिये अन्त करके जन्म-मरण की परम्परा से, औदारिक-वैक्रिय-तैजस्-कार्मण आदि शरीरों से, कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना, मोक्ष प्राप्त कर लेना। अतः अन्तःक्रिया शब्द के दो अर्थ प्रतिफलित होते हैं-मरण और मोक्ष। मरण का फलितार्थ है-इस भव के शरीरादि से छुटकारा तथा मोक्ष का फलितार्थ है जन्म-मरणादि का शरीरादि से, कर्मों का तथा दुःखों का सदा-सदा के लिये अन्त कर देना, उनसे छुटकारा-मुक्ति। पहली अन्तःक्रिया एक-भव का अन्त करने वाली है, जबकि दूसरी सदा के लिए भवों (जन्म-मरण-परम्परा) का अन्त करने वाली क्रिया है।' • लोकोत्तर अन्तःक्रिया और उसके चार प्रकारों का निरूपण _ 'स्थानांगसूत्र' में एक ही प्रकार की लोकोत्तर अन्तःक्रिया का निरूपण किया गया है, लौकिक अन्तःक्रिया का नहीं। वहाँ अन्तःक्रिया का परिष्कृत अर्थ किया गया है-“जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने वाली तथा सर्वकर्मों का क्षय (अन्त) करने वाली योगनिरोध करने की क्रिया अन्तःक्रिया है।" अर्थात् एकमात्र मोक्ष-प्राप्ति के अर्थ में ही वहाँ चार प्रकार की अन्तःक्रियाओं का वर्णन है। - प्रज्ञापनासूत्रोक्त मरणार्थक अन्तःक्रिया के वर्णन का भी आशय शुभ .. फिर भी 'प्रज्ञापनासूत्र' में जो एक-भव के स्थूल शरीर से छूटने = मृत्यु हो जाने के अर्थ में जो अन्तःक्रिया मान्य करके उसका भी उस पद में विविध पहलुओं से वर्णन किया है, उसके पीछे भी शास्त्रकार का आशय शुभ है। १. (क) अन्तो भवान्तः कृतो ये न स अन्तकृत्। __-अन्तकृद्दशांग वृत्ति (ख) 'प्रज्ञापनासूत्र' के २०वें पद के प्राथमिक से भाव ग्रहण, पृ. ३७४ - (ग) अन्तक्रियामिति-अन्तः-अवसानं, तच्चेह प्रस्वावात्कर्मणामवसातव्यम्। तस्य क्रिया = करणमन्तक्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थः। -प्रज्ञापना पद २0, मलयवृत्ति पत्र ३९७ २. देखें-स्थानांगसूत्र, स्था. ४, उ. १, सू. १ का विवेचन (आ. प्र. समिति, ब्यावर), पृ. २०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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