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________________ @ ४०६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ प्रदेशी राजा अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में वाजी पर वाजी हारता जा रहा था। अहंकार, हत्या, अत्याचार क्रूरता आदि पापकर्म उसके जीवन में प्रविष्ट हो गये थे। शासक-पद के मद में आकर वह नरपिशाच बना हुआ था। परन्तु जव श्री केशीकुमार श्रमण के सम्पर्क में आकर उसने जीवन और मरण की कला का पाठ सीखा, उसे शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता का वास्तविक वोध मिला; वह प्रबुद्ध, जाग्रत और रमणिक हो गया। अनासक्त भाव से जीवन और मरण से निरपेक्ष तथा सांसारिक सुखभोगों से विरक्त होकर आत्म-साधना में रत हो गया। इसी दौरान प्रदेशी राजा की इस साधना और धर्माराधना की अन्तिम परीक्षा हुई। रानी सूरिकान्ता ने उसे भोगों में लिपटाने की बहुत कोशिश की। जब वह किसी भी तरह से भोगों के प्रति आकर्षित नहीं हुआ तो रानी ने उसे अपने मार्ग का काँटा समझकर पौषध के पारणे में विष-मिश्रित भोजन देकर समाप्त करने का निश्चय कर लिया। राजा भोजन का ग्रास मुँह में लेते ही उसे विष-मिश्रित जान गया। फिर भी रानी को दोष न देकर अपने पूर्वोपार्जित कर्मों को ही इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। विषाक्त भोजन करते ही जीवन का अन्त निकट जानकर यावज्जीवन संलेखना-संथारा अंगीकार कर लिया। इस दौरान न उसे जीवन के प्रति मोह रहा और न मरण के प्रति घृणा या शोक। न रही सांसारिक सुखभोगों की स्पृहा और न रही अपने किसी स्वजन-सम्बन्धी के प्रति आसक्ति या घृणा। अपनी साधना के प्रतिफल के रूप में किसी पदार्थ की इच्छा (निदानरूप भोगेच्छा) भी नहीं रही। राजा प्रदेशी मृत्यु के साथ प्रसन्नतापूर्वक खेलते हुए समाधिमरणपूर्वक इस संसार से विदा हुए। इस प्रकार पूर्वार्द्ध जीवन में विराधक एवं परीक्षा में असफल राजा प्रदेशी, जीवन के उत्तरार्द्ध में मृत्यु के समय संलेखना-संथारा करके अन्तिम परीक्षा में आराधक एवं सफल हुए। यही बात मंखली-पुत्र गोशालक के जीवन में चरितार्थ हुई। वह भगवान महावीर का विरोधी बनकर साम्प्रदायिक व्यामोह, नाम और प्रतिष्ठा की आसक्ति के चक्र में फँसकर अपने जीवन की बाजी को हारता ही हारता रहा। किन्तु अन्तिम समय में मृत्यु की घड़ी के पूर्व उसे पश्चात्तापपूर्वक अन्तःस्फुरणा हुई-“तूने यह क्या और किसलिए इतना उखाड़-पछाड़ किया? आत्मा को इससे कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि तेरे द्वारा किये गये ये सब कुकृत्य शरीर से सम्बद्ध होने से हानि ही हानि हुई। अतः तुझे अपने जीवन की अन्तिम बाजी हारनी नहीं चाहिए।" यह सोचकर गोशालक के मन में भगवान महावीर के प्रति श्रद्धा और सदभावना जागी। वह मन ही मन घोर पश्चात्ताप और आत्म-निन्दा करके ही न रह गया, उसने अपने तथाकथित आजीवक संघ के समक्ष अपने अपराधों और दोषों को प्रगट (गर्हा) किया। उसकी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि चलकर भगवान महावीर तथा सम्बद्ध व्यक्तियों से अपने अपराध के लिए क्षमा माँगता, किन्तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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