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________________ ॐ ४०२ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति एवं क्षमता का पूर्व अनुमान एवं अनुभव कर लेता है। इस संलेखना के बाद यदि उक्त साधक को यह लगे कि मेरा शरीर वहुत ही दुर्वल और निढाल हो गया है, मैं अपनी दैनिक धर्मक्रिया तथा आध्यात्मिक साधना इस शरीर से नहीं कर पा रहा हूँ। अव शरीर का उपयोग कम है, अधिक भारभूत हो गया है, तब धीरे-धीरे शरीर के प्रति अनासक्त होकर आजीवन संलेखना-संथारा की ओर बढ़ता है। समाधिमरण की पूर्व तैयारी के रूप में संलेखना करके वह अब मारणान्तिक संलेखना-संथारा स्वीकार करता है और उस दौरान वह ध्यानयोग में स्थिरता बढ़ाकर जीवन में लगे हुए दोषों की आलोचना, निन्दना (पश्चात्ताप) गुरु या समाज की साक्षी से गर्हणा (गुरु या वड़ों अथवा संघ के समक्ष दोष प्रकट करना) तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करके आत्म-शुद्धि करता है। निष्कर्ष यह है कि पहली संलेखना समाधिमरण की पूर्व तैयारी है, जबकि यह द्वितीय संलेखना मारणान्तिकी है, जिसे पूर्वोक्त यावज्जीवन भक्तपरिज्ञादि अनशन संथारा कहा जाता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' एवं 'आवश्यकसूत्र' के अनुसार मृत्युकाल नजदीक आने पर साधक प्रीतिपूर्वक मारणान्तिक संलेखना धारण करता है।' इसमें साधक अन्तिम श्वास तक प्राणों के व्यामोह से मुक्त होकर वीरता-धीरतानिर्भयतापूर्वक शान्ति और प्रसन्नता के साथ मृत्यु का सामना करता है, इस संलेखना द्वारा वह मृत्यु-विजय की ओर कूच करता है। .. संलेखना-संथारा कब करना चाहिए, कब नहीं? यों तो संलेखना-संथारा सभी साधकों (साधुवर्ग व श्रावकवर्ग) के लिए है। परन्तु यों ही स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट एवं चलते-फिरते संलेखना या संथारा नहीं किया जाता। उसके लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैनशास्त्रों और ग्रन्थों में एक विशेष योग्यता, शरीर कषायोपशमन तथा काल का विधान है। अत्यन्त वृद्धावस्था आ जाये, शरीर में इतनी अशक्ति आ जाये कि चलना-फिरना, यहाँ तक कि नित्य नियम, धर्मध्यान करना भी दुःशक्य हो जाये, शरीर कोई दुष्प्रतीकार्य या दुःसाध्य रोग का शिकार हो जाये, जिसमें जीवन के बचने की कोई आशा न रही हो या क्षीण हो गई हो, इन्द्रियों तथा शरीर का बल भी क्षीण हो गया हो, जिनसे आवश्यक क्रिया भी न की जा सके, तभी संलेखना की जाती है या पूर्वोक्त तीन १. मारणान्तिकी संलेखनां जोषिता। -तत्त्वार्थसूत्र २. (क) अहभिक्खू गिलाएज्जा आहारस्सेव अंतियं। -आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ८ की श्रीलांक टीका (ख) जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ, से गिलामि च खलु अहं इमेसिं समए इमं सरीरं अणुपुव्वेण परिवहित्तए; से आणुपुव्वेण आहारं संवट्टे (टे) ज्जा, आणुपुव्वेणं आहार संवर्ल्ड (ई) ता, कमाए पयणुए किच्चा पमाहियच्चे फलातवयट्ठी। -आचा. श्रु. १, अ. ९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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