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________________ ® ३८८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * शारीरिक अंगोपांग शिथिल हो जाते हैं। शरीर निस्तेज हो जाता है। ऐसे में अत्यन्त शारीरिक, मानसिक दुर्बलता के कारण शरीर छूट जाता है। इन सब के निमित्त से मृत्यु के समय अगर शान्ति, समाधि और समता न हो, शरीरादि के प्रति ममता-मूर्छा का त्याग न हो, आहार, शरीर, उपधि तथा अट्ठारह पापस्थानों का अन्तर से त्याग न हो, सब जीवों से क्षमापनापूर्वक समाधिभाव न हो तो उस मरण को समाधिमरण नहीं कहा जा सकता। क्योंकि समाधिमरण जीव के आन्तरिक शुभ या शुद्ध मनोभावों पर निर्भर है। अगले भव का आयुष्यबन्ध, गति और योनि का निश्चय तथा पुण्य-पाप के फलस्वरूप मिलने वाले संयोग भी जीव के अन्तिम समय. के परिणामों की धारा पर निर्भर हैं।' आकस्मिक मरण क्या, कैसे-कैसे और समाधिभाव कैसे ? .. इसके बाद आकस्मिक मरणों का नम्बर आता है। ये किसी न किसी कारण से अकस्मात् होते हैं। वे कारण प्राय: ये हैं-भूकम्प, बाढ़, हार्टफेल, रेल-मोटर दुर्घटना, बिजली का गिरना, अग्निकाण्ड, विमान दुर्घटना, हत्या आदि। ऐसे मरण प्रायः अस्वाभाविक, अकाल-प्राप्त और करुणाजनक होते हैं। इनसे स्वयं को तथा स्नेहीजनों-स्वजनों को बहुत आघात लगता है। ऐसे आकस्मिक मरण के समय जीव के परिणाम स्थिर तथा सम रहने अत्यन्त कठिन होते हैं। किसी दुर्घटनाओं के समय व्यक्ति का उपयोग प्रायः देहभाव में ही लगा रहता है। इस कारण मन में आर्तध्यान करते हुए असमाधिपूर्वक ही देह-त्याग होता है। ऐसे आकस्मिकमरण के समय कोई विरलता ही सम्यग्दृष्टि और दृढ़धर्मी श्रावक या श्रमण देहादि पर ममत्वबुद्धि हटाकर समाधिभाव से प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का वरण करता है। हृदय का दौरा पड़ने अथवा हृदयगति बन्द हो जाने से जो मृत्यु होती है, उस समय ज्ञानी साधक ही समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण कर पाता है। पैर रपटने से गिर पड़ने पर अथवा ठेस लगने से दूर फेंके जाने पर मस्तक किसी ठोस पत्थर आदि के साथ टकरा जाय और उससे शरीर छूट जाय, इसकी गणना भी आकस्मिक मृत्यु में की जा सकती है। अज्ञानी के परिणामों की धारा ऐसे अकस्मातों के अवसर पर संक्लिष्ट होने से उसकी मृत्यु को समाधिमरण की संज्ञा नहीं दी जा सकती। यदि बेभान दशा में मृत्यु हो जाए तो उसे एकान्ततः समाधिमरण नहीं कहा जा सकता। समाधिमरण तो तब कहा जा सकता है, जब अन्तिम समय में बाहर से भान न होते हुए भी अन्तर्मन में वह जाग्रत हो, उसे अपनी मृत्यु की स्पष्ट प्रतीति हो, लक्ष्य की ओर दृष्टि हो। १. 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. २५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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