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________________ ॐ ३८४ , कर्मविज्ञान : भाग ८ * मरने की और न मरने के बाद की। मर्छाग्रस्त व्यक्ति सोचता है-मेरा अमुक काम रह गया है, अमुक प्राप्त करना शेष है। इस प्रकार की मूर्छा जिसकी समाप्त हो जाती है, जिसे परिपूर्णता का-जीवन की सन्तुष्टि का-सूत्र प्राप्त हो जाता है, वही समाधिपूर्वक मृत्यु का आलिंगन कर सकता है। अजागृति : समाधिमरण की सबसे बड़ी बाधा समाधिमरण में तीसरी बाधा है-अजागृति। समाधिमरण का साधक मृत्यु के आने से पहले ही मृत्यु के आसार दिखते ही, अथवा मृत्यु का कोई लक्षण दिखाई न देता हो तो भी प्रतिक्षण सावधान और जागरूक रहता है। उसके मन-मस्तिष्क में 'उत्तराध्ययनसूत्र' की यह गाथा अंकित रहती है कि जिस व्यक्ति की मृत्यु के साथ मैत्री हो, अथवा जो दूर कहीं भागकर मृत्यु से छूट सकता हो, अथवा जिसे यह निश्चय हो जाए कि मैं कदापि नहीं मरूँगा, वह भले ही सुख से सो सकता है। किन्तु ज्ञानी एवं जाग्रत साधक को तो दृढ़ निश्चय होता है कि ये तीनों बातें असम्भव हैं। मृत्यु का देर-सबेर से आगमन निश्चित है, उससे भागना या छटकना असम्भव है, किसी देहधारी के न मरने की कल्पना ही आकाश-कुसुमवत् असम्भव है। मृत्यु प्रत्येक देहधारी प्राणी के लिए अनिवार्य है। वह किसी के साथ मैत्री या रियायत नहीं करती, न ही किसी के मुलाहिजे में आती है। प्राणी का आयुष्य क्षीण होते ही मृत्य निश्चित रूप से आती है। ऐसी स्थिति में आत्मा का उपयोग पर-भाव या विभावों में लीन रहे; मृत्यु के समय समता और शान्ति सुरक्षित न रहे, इहलौकिक-पारलौकिक आशंसाओं में ग्रस्त हो जाए तो ऐसा अजाग्रत साधक समाधिमरण प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे अजाग्रत और देह-मोहग्रस्त व्यक्ति की मृत्यु निष्फल हो जाती है। ऐसे मरण तो अनेक बार हुए हैं, परन्तु समाधिपूर्वक न होने से जन्म-मरण के अनेकानेक चक्कर लगाने पड़ते हैं, पड़े हैं। समाधिमरण-साधक मृत्यु के प्रति सदा आशंकित, जाग्रत और सतर्क रहता है समाधिमरण का साधक यदि प्रतिक्षण मृत्यु से आशंकित रहता है तो 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-"माराभिसंकी मरणा पमुच्चइ।"-जो मृत्यु से सदा आशंकित रहता है, यानी मृत्यु को प्रतिक्षण सिरहाने खड़ी देखता है, वह मरण से प्रमुक्त हो जाता है। १. जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वऽतित्य पलायणं। जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुएसिया॥ -उत्तराध्ययन, अ. १४, गा. २७ २. (क) 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' से भाव ग्रहण, पृ. ७९-८० (ख) 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. १९ (ग) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, अ. ४, पृ. ६२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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