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________________ ॐ २० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ समतायोग स्वीकार करने पर ही समाधि, मुक्ति या सुगति यदि समतायोग को स्वीकार किये बिना ही प्रचुर धन, सुख-सामग्री, नृत्य, गीत, वाद्य, रागरंग, राज्य, पद-प्रतिष्ठा, जमीन-जायदाद आदि से मनुष्य को सुख-शान्ति, समाधि, मुक्ति या सुगति प्राप्त हो जाती तो बड़े-बड़े चक्रवर्ती नृपेन्द्रों, नरेशों, धनिकों, वैभवशाली व्यक्तियों, बड़े-बड़े व्यवसायियों, श्रेष्ठिवर्यों आदि को इन सबका त्याग करने की क्या आवश्यकता थी? 'उत्तराध्ययनसूत्र' की ये गाथाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, भरत, महापद्म, हरिषेण, जय, दशार्णभद्र, नमिराजर्षि, करकण्डु, सौवीरराज, उदायन, काशीराज, विजय, महाबलराजर्षि इत्यादि अनेक चक्रवर्तियों, नरेन्द्रों, प्रत्येकबुद्धों आदि ने अपना विस्तृत राज्य, विपुल वैभव, ऋद्धि-समृद्धि आदि सब पर से ममत्व त्यागकर समता की साधना द्वारा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्त किया था। उनकी कितनी ही परीक्षाएँ हुईं, कसौटियों पर कसा गया, फिर भी वे समत्व में खरे उतरे। समतायोग (सामायिक) की साधना से ही उन्हें शान्ति, सन्तोष, सुख (आनन्द) और समाधि मिली, मगर कामभोग के साधनों से, राजमहलों से, धन-सम्पत्ति, सत्ता और वैभव से नहीं। समतायोग के माध्यम से आत्मा में आत्म-स्वरूप में अवस्थित होने या रमण करने पर ही उन्हें शान्ति एवं समाधि प्राप्त हुई। , अतीत, अनागत और वर्तमान में समतायोग के प्रभाव से ही मोक्ष इसीलिए एक आचार्य कहते हैं “जे केवि गया मोक्खं, जे वि य गच्छंति, जे गमिस्संति। ते सव्वे सामाइअ-पभावेण मुणेयव्वं ॥" -जो भी साधक भूतकाल में मोक्ष गये हैं, जो वर्तमान में मोक्ष जा रहे हैं और भविष्य में भी जो मोक्ष जायेंगे, वे सब सामायिक (समतायोग) के प्रभाव से ही गये हैं, जा रहे हैं और जायेंगे, ऐसा समझना चाहिए। सामायिक (समतायोग) की साधना से ही भरत चक्रवर्ती ने शीशमहल में खड़े-खड़े सुन्दर शरीर और बहुमूल्य वस्त्राभूषण आदि से ममत्व छोड़कर समताश्रय से केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। __ और तो और, इहलौकिक जीवन में भी समतायोग के अभाव में कोई भी मनोनीत कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं होता। चाहे सुख का प्रसंग हो या दुःख का, चाहे इष्टवियोग और अनिष्टयोग का प्रसंग हो अथवा अनिष्टवियोग और इष्टसंयोग का प्रंसग हो, भवन मिले या वन में झोंपड़ी मिले या वृक्ष के नीचे रहने को स्थान मिले अथवा उच्च पद, प्रतिष्ठा या सत्ता मिले या नीचा पद, अप्रतिष्ठा १. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. १८ की गा. ३४ से ५१ तक का विवेचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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