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________________ 8 ३७६ 3 कर्मविज्ञान : भाग ८. होंगे? समभाव कितना होगा? वीड़ी फेंकने वाले की भूल देखोगे या अपनी ? म्वयं देखकर चले होते तो क्या ऐसा होता? अतः कोई भी कप्ट या उपसर्ग आने पर निमित्त को दोष देने के बजाय अपने किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म का ही फल है, ऐसा सोचकर उसे समभाव से सहन करोगे तो कर्मनिर्जरा अधिक होगी। मृत्यु के समय भी समभाव रखो तो समाधिमरण होगा। (२४) हे आत्मन् ! तूने नरक में दस प्रकार की महावेदना भोगी है। परमाधामी देवों की मार खाई है। तिर्यंचगति में भूख-प्यास सही है। देवलोक में अपराध करके इन्द्र के वज्र के प्रहार सहन किये हैं। उन सव की तुलना में यह दुःख कितना कम है ? अतः तू अल्प-वेदना भी समभाव से सहन करेगा तो दूसरी योनियों में दुःख भोगने से जो निर्जरा होती थी (हुई); उसकी अपेक्षा अनन्त गुनी निर्जरा यहाँ हो सकेगी; ऐसे विचार कर। यहाँ एक उपवास करोगे तो नरक के एक हजार वर्ष के दुःख नहीं भोगने पड़ेंगे, दो उपवास (बेला या छट्ठ) करोगे तो एक लाख वर्ष के और तीन उपवास (तेला) करोगे तो एक करोड़ वर्ष के कर्मजन्य दुःख नहीं भोगने पड़ेंगे, उतने वर्ष के कर्म क्षय हो जायेंगे; बशर्ते कि वह तप सम्यक् हो। ऐसा विचार करके धर्मध्यान और तपश्चरण में मन लगा। (२५) संसार में कोई कर्जदार नम्रतापूर्वक साहूकार को मूलधन से भी कम रकम चुकाता है तो वह (उसकी विनम्रता देखकर) उसका खाता चुकता कर देता है। परन्तु यदि वह उद्धतता (उद्दण्डता) करता है, तो साहूकार उससे रकम का ब्याज, वकील की फीस तथा कोर्ट का खर्च भी वसूल कर लेता है। उसी प्रकार वेदनीय आदि कर्मरूपी साहूकार का कर्ज तपरूपी उदीरणा करके (उनके उदय में आने पर यानी तकादा करने पर चुकाने की अपेक्षा) पहले ही (नम्रतापूर्वक) चुका दिया जाए, यानी कर्मों का फल उदय में आने से पहले ही समभाव से भोग लिया जाए अथवा उदय में आने पर समभाव से भोगे जाएँ तो वे कर्म शीघ्र ही नष्ट (चुकता) हो जाते हैं। (२६) कृतकर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता, यह तथ्य अनुभवसिद्ध है और बाँधने वाली आत्मा ही कर्मों का क्षय करने में समर्थ है। फिर कर्म का कर्ज चुकाने के अवसर पर मुँह क्यों बिगाड़ता है ? सारा कर्ज मानव-भव में ही समभावपूर्वक चुका दे और वह समाधिमरण के द्वारा ही समभावपूर्वक चुकाया जा सकता है। (२७) जिस प्रकार विचक्षण वणिक् महामूल्यवान् वस्तु कम कीमत में मिलती हो, तो कितने उत्साहपूर्वक खरीदता है ? उसी प्रकार स्वर्ग या मोक्ष के महामूल्यवान् सुख सिर्फ थोड़े से समभाव, सम्यग्दृष्टि-समदृष्टि एवं शुद्ध धर्माचरण से समाधिमरण के द्वारा ही मिल सकते हैं तो उस समाधिमरण को क्यों नहीं अपनाएँ ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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