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________________ @ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ३६५ रखी, वही व्यक्ति मृत्यु के समय वुर्ग तरह पछताता है। आचारांगसूत्र' के अनुसार ऐसा व्यक्ति अन्तिम क्षणों में शोक करता है, झूरता है, संतप्त (पीड़ित) होता है, परितप्त होता है, अपने किये पर पछताता है कि मैंने जीवन वर्वाद कर दिया, कुछ भी सत्कर्म नहीं किया और न ही कर्मक्षय कर्मनिरोध करने का पुरुपार्थ किया, अब मेरा परलोक में क्या हाल होगा? उसके लिए मृत्यु दुःखदायक या भयोत्पादक नहीं होती जो मनुष्य प्रारम्भ से ही अपने जीवन का लक्ष्य और कर्त्तव्य समझ लेता है, वह न तो मृत्यु से डरता है और न इन्द्रिय-मनो-विषयों के उपभोगों में तीव्र आसक्ति रखता है और न जीवन में इतना घोर दुष्कर्म, अनाचरण करता है। तव फिर उसे मरने से डर क्यों होगा? जिसे यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि शरीर छूट जाने पर भी आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। शरीर और आत्मा दोनों भिन्न-भिन्न हैं। आत्मा तो सचेतन है, ज्योतिर्मय है, अविनाशी है और शरीर पुद्गल है, जड़ है, अचेतन है, वह एक दिन अवश्य नष्ट होने वाला है। शरीर कर्म कारावास से मुक्त होने में डर किसका ? : एक चिन्तन आत्मा का शरीर को छोड़ देना ही मृत्यु है। शरीर को छोड़ना तो अवश्य है, लेकिन कैसे छोडना? किस विधि से छोडना? यह अवश्य विचारणीय है। तत्त्वज्ञ पुरुष जानता है कि शरीर भी एक तरह से आत्मा का कारावास है और यही शरीर जाग्रत और तप-संयम में पुरुषार्थी व्यक्ति के लिए कारावास से मुक्त होने का साधन भी है। परन्तु आत्महत्या करने से, दूसरों को मारकर मरने से या भोगासक्त : होकर हाय-हाय करने, विवश होकर मरने (यानी शरीर छोड़ने) से तो उलटे उस व्यक्ति को पुनः-पुनः नये-नये अशुभ शरीर धारण करने पड़ते हैं, रोगादि दुःख से मुक्त होने के लिए या दूसरों को मारने के लिए या जीवन से ऊबकर अथवा अन्य किसी चिन्ता, उद्विग्नता, आवेश आदि से जो मरता (शरीर को छोड़ता) है, वह तो वास्तव में मुक्त होने या सुगति पाने के अच्छे-से-अच्छे साधनरूप शरीर का ही नाश करता है। दवा की बोतल फोड़ देने से व्यक्ति रोगमुक्त नहीं हो सकता, इसी प्रकार शरीर को यों ही तोड़-फोड़कर नष्ट कर देने से आत्मा (जीव) शरीररूपी कारागृह से अथवा जन्म-मरणादि के रोग से-कर्मरोग से मुक्त नहीं हो सकता। अतः शरीर कब छोड़ा जाए, कब नहीं ? कैसी परिस्थिति में शरीर के प्रति मोह-ममत्व को छोड़ा जाए? शुभ कर्म या संवर-निर्जरारूप धर्म का आचरण करते हुए मृत्यु आ जाए या मृत्यु का अवसर आ जाए उस समय क्या किया जाए? इत्यादि विवेक के साथ १. सो सोयइ झूरइ तप्पइ परितप्पइ। -आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ५ २. उत्तराध्ययन ५/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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