SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • १८ कर्मविज्ञान : भाग ८ मं वाधक या अवगेधक वनकर संसार की भूलभुलैया में डाल सकते हैं। ऐसी थिति में माक्ष की मंजिल तक पहुँचने का उसका स्वप्न धरा रह सकता है। किन्तु जाग्रत और वाहोश अध्यात्मयात्री में इतना आत्म-वल, प्राण-वल, साहस और आत्म-विश्वास होता है तथा उसमें इतनी क्षमता, शक्ति और निर्भयता आ जाती है कि वह इन सब उपर्युक्त विषमता बढ़ाने वाले संयोगों, परिस्थितियों, भयों, प्रलाभना या सुख-दुःख आदि के मोहजाल में नहीं फँसकर सर्वकर्ममुक्तिरूप माक्षलक्ष्य की ओर अवाधरूप से गति-प्रगति कर पाता है। अध्यात्मयात्री समतायोग के सहारे मोक्ष की मंजिल तक पहुँचता है । प्रश्न होता है-अध्यात्मयात्री अपनी यात्रा में विना थके, बिना रुके, बिना झुंझलाए, विना गग-द्वेषादि द्वन्द्वों के जाल में उलझे कैसे द्रुतगति से अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि समतायोग ही एक ऐसा प्रबल सम्बल मार्ग, साधन या माध्यम है, जिसके सहारे से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष का अध्यात्मयात्री अपनी आत्मा को प्रवल, सशक्त, सक्षम एवं बलवान् बनाकर शरीर आदि उपकरणों को अपने सहयोगी बनने के लिए बाध्य कर सकता है। इसी प्रकार संसार का निर्माण करने तथा बढ़ाने वाले लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, सम्मान-अपमान आदि द्वन्द्वों से अलिप्त या दूर रहकर अपनी अध्यात्मयात्रा से बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण कर सकता है। इसीलिए ‘इसिभासियाई' में कहा गया है-“सव्वत्थेसु समं चरे।"-मनुष्य को सभी अर्थों में समभावी रहना चाहिए। समतायोग में अविनाशी के साथ योग है। समतायोग में निहित योग शब्द का अर्थ है-जुड़ना या जोड़। जुड़ना या योग दो प्रकार का होता है। एक होता है-विनाशी के साथ और दूसरा होता हैअविनाशी के साथ। दृश्यमान संसार, संसार के पदार्थ या पुद्गल या लाभ-अलाभ आदि सभी द्वन्द्वात्मकभाव विनाशशील, परिवर्तनशील हैं-उत्पादव्यययुक्त हैं। अविनाशी वह है, जो ध्रुव है, शाश्वत है, सनातन है, जो विनाशी का ज्ञाता-द्रष्टा है, जिसे हम आत्मा, परमात्मा चेतन या जीव कहते हैं अथवा धर्म एवं मोक्ष भी ध्रुव-अविनाशी है।' हरिभद्रसूरि के अनुसार-धर्म (समतादि) की समस्त प्रवृत्ति मोक्ष के साथ योग कराती है, इसलिए वह (समता) योग है। १. एस धम्मे धुवे णिच्चे सासए जिणदेसिए। २. मोक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। -आचारांग, श्रु. १, अ. १ -योगविंशिका १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy