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________________ ॐ मोक्ष - सिद्धि के साधन : पंचविध आचार ३४३ (१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार, और (५) वीर्याचार ।' इन्हीं पाँच आचारों को पृथक्-पृथक् समझाने हेतु संख्या-भेद जैन आगमों में विभिन्न दृष्टियों से आचार के भेद - प्रभेद किये गये हैं । कहीं श्रुतधर्म और चारित्रधर्म के नाम से उसके दो भेद हैं, कहीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के रूप में तीन भेद हैं। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के रूप में चारों के समन्वित रूप को मोक्षमार्ग कहा गया है। ‘स्थानांगसूत्र' में ज्ञानाचार आदि पाँच आचार के रूप में पाँच भेद किये हैं। गहराई से चिन्तन करें तो संख्या - भेद होने पर भी मौलिक एवं सैद्धान्तिक दृष्टि से इनमें कोई अन्तर नहीं है । विभिन्न प्रकार से समझाने के लिए ही ये भेद किये गये हैं । श्रुतधर्म अर्थात् ज्ञान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का और चारित्रधर्म अर्थात् क्रिया में सम्यक्चारित्र का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार तप का भी चारित्र में समावेश हो जाता है । आचार के जो पाँच भेंद किये गये हैं, उनमें से प्रथम दो का ज्ञान में और अन्तिम तीन का चारित्र में समावेश किया जा सकता है; क्योंकि तप और वीर्य, ये दोनों चारित्र - साधना के अंग हैं। इस प्रकार ज्ञान और क्रिया में, आचार और विचार में सभी भेदों का समावेश किया जा सकता है। आचार के पाँच भेद आत्मा के चार निजी गुणों को आत्मसात् करने के लिए हैं परन्तु यहाँ जो आचार के पाँच भेद किये गये हैं, वे आत्मा के निजी चार गुणों को जीवन में आचरित और अभ्यस्त करके उन्हें आत्मसात् करने के लिए हैं। आत्मा ज्ञानमय, दर्शनमय, आनन्दमय और शक्तिमय है, आत्मा के इन चारों गुणों के साथ एकरसता लाने हेतु पृथक्-पृथक् पाँच आचारों का प्ररूपण किया गया है। 'महाप्रत्याख्यान' में कहा गया है- "जिस आचरण से वैराग्य जाग्रत होता है, उसका पूर्ण श्रद्धापूर्वक आचरण करना चाहिए। " ३ १. ( क ) पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा - णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, 'वीरियायारे। - स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. २, सू. १४७ - निशीथभाष्य चूर्णि, गा. ७ (ख) इयाणि भावायारो भण्णइ । सो य पंचविहो इमोनाणे दंसण-चरणे, तवे य विरिये य भावमायारो । (ग) दंसण - णाण-चरित्ते तवे विरियाचर पंचविहे । वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदं, अणुमोदिदे अकदो ॥ २. 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ९८ ३. जेण विरागो जाय, तं तं सव्वायारेण कायव्वं । Jain Education International For Personal & Private Use Only - मूलाचार, गा. १९९ -महाप्रत्याख्यान १०६ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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