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________________ 2 मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार 0 ३४१ 8 जैसे तैरने की कला की पुस्तक पढ़ने मात्र से तैरना नहीं आ जाता,' विज्ञान की थ्योरी जान लेने मात्र से वैज्ञानिक प्रयोग में सफलता नहीं मिल सकती, पाककला पर लिखी हुई पुस्तक पढ़ने मात्र से पाककला (रसोई बनाने की कला) नहीं आ जाती, इन सबका व्यवस्थित रूप से अभ्यास करने पर पुनः-पुनः आचरण करने पर ये कलाएँ या विद्याएँ हस्तगत होती हैं। इसी प्रकार धर्म या धर्मक्रियाएँ जान लेने या बाह्य रूप से-द्रव्य रूप से कर लेने मात्र से धर्म जीवन में नहीं आ सकता। - धर्म क्या है, क्या नहीं ? आचार्य कुन्दकुन्द से पूछा गया-धर्म क्या है ? तो उस महान् आचार्य ने यह नहीं कहा-अमुक ढंग से, अमुक स्तोत्र पाठ करना, अमुक जाप आदि करना धर्म है ! अमुक प्रकार की वेशभूषा धारण करना या अमुक तरह की क्रियाएँ करना धर्म है ! या अमुक प्रकार से माला फेरना धर्म है, अमुक पंथ या सम्प्रदाय के साधु-साध्वी का दर्शन करना ही धर्म है; अथवा अमुक पंथ या सम्प्रदाय की सम्यक्त्व लेने में धर्म है ! आत्मा का स्व-भाव ही उसका धर्म है उन्होंने धर्म की बहुत ही सुन्दर और व्यापक परिभाषा बताई-“वत्थु-सहावो धम्मो।'-वस्तु का निज-स्वभाव, निज गुण ही धर्म है। जैसे-अग्नि का धर्म तेज है, जलाने पर उष्णता या प्रकाश देना उसका स्वभाव है। अग्नि किसी व्यक्ति, स्थान, काल, सम्प्रदाय या देश-विशेष आदि किसी से प्रतिबद्ध नहीं है। उसे कभी भी, कहीं भी, किसी के भी द्वारा जलाई जाने पर वह अपने स्वभावानुसार उष्णता व प्रकाश देती है। इसी प्रकार आत्मा का जो अपना स्व-भाव-निजी गुण है, वही धर्म है। इस परिभाषा से किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का, किसी भी आत्मा का, किसी भी वर्ण, वेष, देश, काल आदि का कोई विरोध नहीं। अपने आप को अधार्मिक या कट्टरपंथी साम्प्रदायिक मानने वाला भी धर्म की इस परिभाषा से अछूता नहीं है। यह आत्म-धर्म है।३.. १. जाणंतोऽवि तरिउं, काइयजोगं न जुंजइ नईए। सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी. चरणहीणो॥ -आवश्यकनियुक्ति ११५४ २. (क) 'साधना के मूलमंत्र' से भावांश ग्रहण, पृ. १३९-१४२ . (ख) देखें-सामायिक के १0 मन के दोष तथा ५ अतिचारों में सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणयाए आदि अतिचार तथा पौषध के पोसहस्स सयं अणणुपालणया इत्यादि पाठ ३. 'साधना के मूलमंत्र' से भाव ग्रहण, पृ. १४२-१४३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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