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________________ ॐ मोक्ष- सिद्धि के साधन : पंचविध आचार ३३९ ४ जो विचार या ज्ञान आचरण में नहीं है, वह बाँझ है, उससे कर्ममुक्ति नहीं हो पाती इस पर से यह स्पष्ट है कि विचारों का चाहे जितना कच्चा माल मन-मस्तिष्क में भरा हो, जब तक उसे विवेकपूर्वक एकत्रित करके यथास्थान लगाया, जमाया और चलाया नहीं जायेगा, तब तक वह आचाररूप जीवनप्रासाद का रूप नहीं ले सकेगा। कोई कितनी ही विचाररूपी मिट्टी इकट्ठी कर ले, जब तक उसे आचाररूप घट बनाने का पुरुषार्थ नहीं कर लेता, तब तक वह उसे आचाररूप अमृतकलश-सर्वकर्ममुक्ति मन्दिर के शिखर का कलश नहीं बना सकता । आजकल बहुत-से नेता, राजनयिक, साम्प्रदायिक लोग धर्म का आँचल ओढ़कर ऊँचे-ऊँचे विचारों का बहुत प्रचार करते हैं, किन्तु तदनुरूप आचार होने से उनकी विचारक्रान्ति असफल हो जाती है, अश्रद्धेय बन जाती है। थोथे विचारों से न तो विचारों की शुद्धि होती है और न ही वे विचार राग-द्वेषादिजनित विकारों को ही दूर कर पाते हैं। भगवान महावीर ने कहा - " "ऐसे व्यक्ति जो केवल शास्त्रवचनों को, कर्मबन्ध और कर्ममोक्ष के कार्य-कारणमय आश्वासनप्रद वचनों को सुनाते हैंजनता को केवल भाषण से सन्तुष्ट करते हैं, किन्तु जीवन में आचरित नहीं करते, वे वाणी की शूरवीरता से अपने आप को आश्वासन दे लेते हैं ।” उनकी आत्मा कर्मों को मिटाकर शुद्ध और स्वरूप में स्थित नहीं हो सकती।' क्योंकि उनके सम्यक्आचारहीन विचार आत्म-शुद्धि नहीं कर पाते, बल्कि वे अहंकारी, प्रपंची, आडम्बरप्रिय और आत्म-वंचक बन जाते हैं। "ऐसे अविद्यावान् व्यक्ति चाहे विभिन्न भाषाओं का ज्ञान कर लें, चाहे वे चित्ताकर्षक मोहक लच्छेदार भाषणों से लोकरंजन कर लें, किन्तु वे भाषण या भाषाएँ उनकी आत्मा का जन्म-मरणादि दुःख प्रदायक कर्मों से रक्षण नहीं कर सकतीं, तब फिर अनेक मंत्र-तंत्र-यंत्र एवं विद्याओं का अनुशासन ( शिक्षण-प्रशिक्षण) कैसे उन्हें तार सकता है ?" इसीलिए 'महाभारत' में कहा है- “आचारहीन को ( अध्ययन किये हुए) वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।” वेदों का ज्ञान या विविध विद्याओं या भाषाओं का पठन केवल तोतारटन हो जाता है, आचरण के बिना | R १. तुलना करें The good man is not he, who know what is good, but who loves it. - स्वामी विवेकानन्द २. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४ (ख) भणंता अकरेंता य बंध - मोक्ख-पइण्णिणो । वाया - विरिय मेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ १० ॥ (ग) न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ॥ ११ ॥ (घ) आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । Jain Education International - उत्तराध्ययन, अ. ६, गा. १०-११ - महाभारत, अनुशासनपर्व १४९/३७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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