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________________ ॐ ३२० * कर्मविज्ञान : भाग ८ . शिथिल, यावत् निष्ठित किये हैं, यावत् वे कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और वे अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा और महापर्यवसान वाले होते हैं। अन्नग्लायक शब्द के दो अर्थ वृत्तिकार एवं चूर्णिकार ने किये हैं। यथा-“अन्न के बिना ग्लानि पाने वाला।” इसका आशय यह है कि-(१) जो भूख से इतना आतुर हो जाता है. कि गृहस्थों के घर में रसोई बनने तक की प्रतीक्षा नहीं कर सकता। भूख न सह सकने वाले ऐसे कूरगडूक मुनि की तरह गृहस्थों के घरों में जैसा भी ठंडा, बासी, कूरादि अन्न या पके हुए चावल लाकर प्रातःकाल ही खा जाता है। (२) चूर्णिकार के मतानुसार अन्नग्लायक वह है, जो भोजन के प्रति इतना निःस्पृह है कि जैसा भी अन्न-प्रान्त ठंडा बासी अन्न मिले, उसे निगल जाता है।' इसी प्रकार जिनके सम्यक्त्व-सप्तक (अनन्तानुबन्धी चार कषाय तथा दर्शनमोहनीय त्रिक) का क्षय हो गया है अथवा जो तद्भव मोक्षगामी है, ऐसे एकान्त पण्डित की दो गतियाँ 'भगवतीसूत्र' में कही गई हैं। यथा-या तो वह अन्तःक्रिया (संसार का, कर्मों का या जन्म-मरणादि का अन्त) करता है यानी मोक्ष प्राप्त करता है या वह कल्पोपपत्तिक (सौधर्मादि कल्पों = देवलोकों में उत्पन्न) होता है। वह मनुष्यायु, तिर्यञ्चायु या नरकायु का बन्ध नहीं करता, किन्तु देवायु, बाँधकर देवों में उत्पन्न होता है। ___'भगवतीसूत्र' के अनुसार-आस्रव द्वारों का निरोध करके संवर की साधना निष्ठापूर्वक करने वाले संवृत अनगार कहलाते हैं। ये छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होते हैं। संवृत अनगार आयुष्यकर्म के सिवाय शेष गाढ़बन्धन से बद्ध ७ कर्मप्रकृतियों के शिथिल बंधनबद्ध कर देता है, दीर्घकालिक स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को ह्रस्व (अल्प) कालिक स्थिति वाली कर लेता है तथा तीव्र रस (अनुभाव) वाली प्रकृतियों को मन्द रस पाली कर लेता है। बहुप्रदेश वाली प्रकृतियों को अल्पप्रदेश वाली कर देता है। आयुष्यकर्म को नहीं बाँधता तथा असातावेदनीय कर्म का बार-बार उपचय नहीं करता। (अतएव वह) अनादि अनन्त दीर्घ पथ वाले चातुर्गतिक रूप संसारारण्य का उल्लंघन (पार) कर जाता है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि संवृत अनगार सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परिनिर्वृत और सर्वदुःखान्तकर हो जाता है। इसके विपरीत असंवृत अनगार चारों ही प्रकार के बन्धों में वृद्धि करता है, वह चातुर्गतिक संसार का अन्त नहीं करता। संवृत अनगार दो प्रकार के होते हैं-चरमशरीरी और अचरमशरीरी । चरमशरीरी उसी भव में मोक्ष जाते हैं जबकि अचरमशरीरी ७-८ भव तक मोक्ष प्राप्त करते हैं। १. भगवतीसूत्र, खण्ड ३, श. १६, उ. ४, सू. ७. पृ. ५५३ २. वही, खण्ड १, श. १, उ.८, सू. २, विवेचन (आ. प्र. स.. व्यावर) ३. वही, श. १, उ. १, सू. ११-१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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