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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ॐ ३०७ * प्रेरित होते हैं, इसलिए ३ x ३ x ३ = २७ को ४ से गुणा करने पर २०८ भेद क्रियमाणपाप के होते हैं। क्रियमाणपाप के १८ भेद प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक होते हैं। इनके भी तीन करण, तीन योग से तथा तीनों काल से गुणा करने पर १८ x ३ x ३ x ३ = ४८६ विकल्प हो जाते हैं। पापकर्म के दो प्रकार हैं-घाति और अघाति। ज्ञानावरणीय आदि ४ घातिकर्म आत्म-गुणों के आच्छादक, विकृतिकारक और विघ्नकारक हैं। शेष चार अघाति पाप (अशुभ) कर्म हैं, जो गुणों की घात तो नहीं करते, किन्तु पहले तन-मन में प्रगट होते हैं और फिर आत्मा को प्रभावित करते हैं, असातावेदनीय, दुर्भवकारक नरक-तिर्यञ्चायुकर्म, दुराकृतिकारक अशुभ नामकर्म और अपूज्यकारक नीच गोत्रकर्म, ये चार पापरूप अघातिकर्म हैं। पाप कई प्रकार से हो जाते हैं-वे गृहीत व्रतनियम-त्याग-प्रत्याख्यान में अनभ्यास से, इच्छाएं-अनिच्छा से, साधना में चित्त न लगने से, योगों की चंचलता से, चित्तशून्यता से, मूढ़ता से, भ्रान्ति से। अतः इन सब का उपचार है-विषधर सर्प से भय की तरह पाप से भय, कम्पन और निष्पक्षभाव से, सरलता से शीघ्र आलोचना और प्रायश्चित्त। आलोचना का क्या स्वरूप है, कितने प्रकार हैं ? उसकी क्या विधि है ? किसके समक्ष आलोचना करनी चाहिए? इत्यादि सब बातों पर हम ‘प्रायश्चित्ततप' से सम्बन्धित निबन्ध में प्रकाश डाल चुके हैं।' निष्कर्ष यह है. आलोचना से आत्मा शुद्ध, निष्पाप और हलकी होकर शीघ्र ऊर्ध्वारोहण कर सकती है। छठा बोल-यथासमय आवश्यक (प्रतिक्रमणादि) करने से जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय आवश्यक भी आत्मा के मूलगुणों में हुई क्षति के निवारण, शोधन और शुद्धि के संकल्प, समभाव एवं आत्म-भावों में रमण करने की अचूक प्रक्रिया है। शास्त्र में साधुवर्ग के लिए प्रतिदिन दोनों समय आवश्यक क्रिया भावपूर्वक करने का विधान है। उसके ६ अंग हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव (उत्कीर्तन), गुरुवन्दन (गुणवत्प्रतिपत्ति) प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। इनमें मुख्यतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। ये छहों आवश्यक आध्यात्मिक जीवन की शुद्धि, पुष्टि, वृद्धि, शान्ति एवं तुष्टि के लिए अवश्यकरणीय हैं। आध्यात्मिक विकास की दिशा में बढ़ते रहने तथा परमात्मभाव-शुद्धात्मभावों में स्थित होने के लिए ये ६ अंग आवश्यक हैं। प्रतिक्रमण से व्यक्ति अपनी आत्मसाक्षी से निष्पक्ष होकर अपना आत्म-निरीक्षण करके (दिन और रात आदि में) लगे हुए दोषों की शुद्धि करता है। सामायिक से १. देखें-आलोचना के विशेष ज्ञान के लिए 'प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय' शीर्षक निबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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