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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र २९३ - उसी भव में मुक्त हो जाते हैं तथा कई जीव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर तीसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं । ' निष्कर्ष यह है कि उत्कृष्ट अभयदानी सुपात्र को दान देने वाला सुपात्रदानी श्रमणोपासक या तो परम्परा से शीघ्र ही सिद्धत्व - मुक्तत्व प्राप्त करता है अथवा एकान्त निर्जरा करता है या फिर देवलोक प्राप्त करता है। अभयदान का माहात्म्य, स्वरूप, प्रकार और विश्लेषण अभयदान देने वाला उत्कृष्टपात्र निर्ग्रन्थ निःस्पृह साधुवर्ग है। अभयदान सभी दानों में उसी प्रकार श्रेष्ठ है, जैसे शरीर में मस्तक श्रेष्ठ है, आभूषणों में मुकुट प्रधान है और शुद्ध धर्म में भाव प्रधान है। अभयदान का अर्थ है - शास्त्रोक्त सातों भवों में से मरण भय का निवारण करना । मरण के चार रूप हो सकते हैं - उपस्थित ( तत्काल ) मरण स्वतः तथा परतः एवं सम्भावित मरण स्वतः तथा परतः । अर्थात् अपनी ओर से होने वाले तत्काल मरण को तथा दूसरों की ओर से होने वाले तत्काल मरण को रोकना, इसी प्रकार अपनी ओर से तथा अन्य की ओर से होने वाले सम्भावित मरण को रोकना चतुर्विध अभयदान है । 'सूत्रकृतांग वृत्ति' में एक दृष्टान्त द्वारा अभयदान का माहात्म्य समझाया गया है - एक श्रेष्ठिपुत्र को चोरी के अपराध में राजा ने मृत्युदण्ड की सजा सुनाई। जब चोर को वध्य-स्थान की ओर ले जाया जा रहा था तो राजा की बड़ी रानी ने करुणावश उसे एक दिन के आतिथ्य के लिए माँगा। राजा ने स्वीकार किया। अतः रानी ने उसे नहला-धुलाकर बहुमूल्य वस्त्र पहनाये और स्वयं परोसते हुए स्वादिष्ट भोजन करवाया। दूसरे दिन मझली रानी ने उस चोर के आतिथ्य की माँग की। राजा ने स्वीकृति दे दी । इस रानी ने एक सहस्र स्वर्ण-मुद्राएँ व्यय करके उसे स्नानादि के अलावा वस्त्राभूषण पहनाये, भोजन करवाया और संगीतादि मनोरंजन भी करवाया। तीसरे दिन सबसे छोटी रानी ने भी उसका एक दिन आतिथ्य करने की माँग की। उसने उस चोर की राम कहानी सुनी, उसे भोजन कराया और आश्वासन दिया कि यदि तुम भविष्य में अपराध न करने का वचन दो तो मैं तुम्हें मृत्युदण्ड से मुक्त करा सकती हूँ। चोर वचनबद्ध हो गया। रानी ने राजा से अनुनय-विनय करके उसका मृत्युदण्ड रद्द करवा दिया। चोर जब प्रसन्न होकर घर जाने लगा, उस समय तीनों रानियों में विवाद उत्पन्न हो गया कि १. ( क ) ( प्र . ) समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असण-पाण- खाइम- साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जति ? ( उ ) गोयमा ! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जति । Jain Education International - भगवतीसूत्र, श. ८, उ. ६, सू. १ इत्यादि पाठ तथा कई तेणेव भवेण सिज्झिस्संति । - भगवती, अ. वृत्ति, पृ. २८९ (ख) 'अणुकंपऽकाम- णिज्जर- बालतवे-दाण-विणए' निव्वुया सव्व कम्मओ विष्पमुक्का । केई तइय-भवेणं For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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