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________________ ४ २८० कर्मविज्ञान : भाग ८ पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के सन्धिकाल में अपनी आत्मा का अपने आप से सम्प्रेक्षण करता है कि मैंने क्या किया हैं ? क्या करना शेष है और कौन-सा ऐसा शक्य कार्य है, जिसे मैं नहीं कर पा रहा हूँ ? मुझे दूसरे हितैषी साथी किस दृष्टि से देखते हैं? मैं अपने आप को किस दृष्टि से देखता हूँ? कौन - सी ऐसी स्खलना है, जिससे मैं विरत नहीं हो रहा हूँ ? इस प्रकार सम्यक् अनुप्रेक्षणा करता हुआ साधक अनागत कर्मों का बन्ध नहीं करता।" इस प्रकार अपने जीवन में अप्रमत्त होकर शुद्ध धर्मजागरणा करता हुआ साधक उत्कृष्ट भाव से आत्म-शुद्धि करके शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ' मोक्ष के अंशभूत सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित ८ बोलों का विश्लेषण पहला बोल - सूत्र - सिद्धान्त सुनकर, वैसी ( सम्यक् ) प्रवृत्ति करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय सम्यग्ज्ञान से विरुद्ध या रहित क्रिया सम्यक् (मोक्षकार्यसाधिका) क्रिया नहीं है, इसी प्रकार सम्यग्ज्ञान के रहते हुए भी साध्य ( कर्ममुक्तिरूप मोक्ष) से विपरीत क्रिया भी कार्यसाधिका नहीं होती । कोई व्यक्ति शास्त्रों और सिद्धान्तों का बहुत ही श्रवण करे या कण्ठस्थ कर ले, उनका ज्ञान तथा अर्थज्ञान कर ले, शास्त्र - वचनों पर व्याख्या, व्याख्यान या विश्लेषण कर दे, उतने मात्र से ही वह सम्यक् प्रवृत्ति करेगा, यह निश्चित्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कोरा श्रवण, कण्ठस्थ ज्ञान, व्याख्यान या विश्लेषण सम्यक् क्रिया में बलात् प्रवृत्त नहीं करते, तथारूप सम्यक् प्रवृत्ति के लिए उत्पन्न आत्म-परिणाम ही बद्ध कर्मों को काटते हैं, मोक्ष के निकट पहुँचाते हैं। अतः जो आत्मार्थी साधक मुमुक्षुभाव से रुचिपूर्वक शास्त्र - सिद्धान्त सुनता है, जिसे कर्मों से मुक्त होने की तमन्ना है, वह आगमगत विधि-निषेधों को याद रखकर, लक्ष्यानुसारी शुभ प्रवृत्ति करता है अथवा शुद्धोपयोग में - आत्म-भावों में रमण करता है, वही शीघ्र मोक्ष के निकट पहुँचता है। शास्त्र - श्रवण करके भी कई लोग श्रेय-अय का निर्णय नहीं कर पाते, अनिर्णायक स्थिति में वे जो भी प्रवृत्ति करते हैं, वह मोक्षलक्षी नहीं हो पाती । उनमें हिताहित विवेकबुद्धि उत्पन्न न होने के प्राय: निम्नोक्त कारण हैं - ( १ ) भौतिकादि विज्ञान का मोह, (२) बुद्धि का या श्रुत का मद, (३) शास्त्र - वचनों पर शंका, (४) अनाप्त के प्रति अन्ध-विश्वास, लोकप्रवाह की ओर रुझान आदि । अतः मोक्षलक्षी सम्यक् प्रवृत्ति के लिए इन सब बाधक कारणों से दूर रहकर हेयोपादेय विवेकपूर्वक प्रयत्न करना चाहिए। १. जे पुव्वरत्तावरत्तकाले संपिक्खए अप्पगमप्पएणं। किं मे कडं, किं च मे, किच्चसेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि ॥ १२ ॥ किं मे परो पासइ, किं च अप्पा, किं वाऽहं खलिअं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुज्जा ॥१३॥ - दशवै. विविध चर्या चू. २ / १२-१३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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