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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र इच्छा या कामैपणा के तीन रूप व्यावहारिक जगत् में देखे जाते हैं - पुत्रैषणा, वित्तैपणा और लकपणा। ये लौकिक एपणाएँ यहाँ त्याज्य हैं । किन्तु पूर्वोक्त प्रकार की मुमुक्षा या मोक्ष प्राप्ति की एपणा लोकोत्तर इच्छा प्रशस्तराग रूप होने से कथंचित् उपादेय है। जब तक दशम गुणस्थान तक की भूमिका प्राप्त न हो, तक अमुक भूमिका तक साधक के लिए यह कथंचित् उपादेय है। तव निश्चयदृष्टि से मोक्ष की इच्छा हेय, किन्तु व्यवहारदृष्टि से कथंचित् उपादेय यद्यपि उच्च भूमिका वाले साधक के लिए मोक्ष की इच्छा भी त्याज्य होती है। जैसे कि कहा गया है- "मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिरुत्तमः । " - श्रेष्ठ मुनिवर मोक्ष और भव (संसार) दोनों के प्रति सर्वत्र निःस्पृह रहता है । वह समता की उच्च भूमिका (वीतरागता ) पर अवस्थित होता है, उसे ( व्यावहारिक दृष्टि से) मोक्ष शीघ्र पाने की उतावली, व्यग्रता या आकुलता नहीं होती, क्योंकि वह संसार में रहता हुआ भी संसार से उदासीन, निरपेक्ष होकर निश्चयदृष्ट्या स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष में स्थित रहता है। इसलिए संसार को शीघ्र छोड़ने के विकल्प और आकुलता या व्यग्रता से भी वह दूर रहता है। २७३ मोक्ष की इच्छा : अन्य अप्रशस्त सांसारिक इच्छाओं के शमन के लिए किन्तु जो साधक अभी इतनी उच्च भूमिका पर नहीं पहुँचा है, उसके लिए मोक्षपुरुषार्थ में प्रेरित होने के लिए मोक्ष की प्रशस्त इच्छा कथंचित् ग्राह्य होती है । 'न्यायशास्त्र' में कहा गया है - काँटे से काँटा निकाला जाता है, लोहे की छैनी से लोहे के बन्धन (बेड़ी आदि) कटते हैं, वैसे ही मोक्ष की प्रशस्त इच्छा से अन्य (पर) पदार्थों की इच्छा का शमन होता है। एक दृष्टि से मोक्ष की प्रशस्त इच्छा अन्य अप्रशस्त इच्छाओं के शमन या अभाव की इच्छा है। 'सांसारिक इच्छाएँ बहिर्मुखी : मोक्ष की इच्छा अन्तर्मुखी वैसे देखा जाये तो सभी सांसारिक इच्छाएँ बहिर्मुखी होती हैं, वे पौद्गलिक भाघों से प्रतिबद्ध होती हैं। अतः पर-पदार्थों का संयोग तथा रागादि विभाव उसमें इष्ट होता है। संयोगों से जीव को दुःखों की परम्परा प्राप्त होती है, संयोग से आकुलता पैदा होती है और आकुलता कदापि आत्मिक सुख प्रदान नहीं कर सकती। अतः सांसारिक इच्छाएँ किंचित् भी सुखरूप न होने से त्याज्य होती हैं, जबकि मोक्ष की इच्छा या रुचि पारमार्थिक और अन्तर्मुखी होती है, आत्मा की वर्तमान स्थिति के अनुप्रेक्षण से वह आत्म-भावों की अनुगामिनी होती है । फिर मोक्ष . की रुचि से पर - पदार्थों के त्याग प्रत्याख्यान या विरति की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। साथ ही अव्याबाध शाश्वत सुखरूप निर्वाण के प्रारम्भिक हेतु रूप में मोक्ष की रुचि उसका बीज बन जाता है। इससे उसे सांसारिक और वैकरिक सुख से उदासीनता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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