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________________ २६६ कर्मविज्ञान : भाग ८३ मोक्षपुरुषार्थी का ध्येय और आदर्श तथा पुरुषार्थ में सफलता के मूलमंत्र अतः मोक्षपुरुषार्थ में मोक्ष को ध्येय और परमपद (परमात्मपद) को आदर्श मानकर जो चलता है, उसे कितना सजग, सावधान और अप्रमत्त होकर चलना चाहिए? इस विषय में 'अनुयोगद्वारसूत्र' में दिशा निर्देश किया गया है"मोक्षपुरुषार्थी-साधक का चित्त, मन, लेश्या और अध्यवसाय मोक्ष की ओर हो; मोक्ष के प्रति उसका तीव्र अध्यवसानपूर्वक साहस ( या उत्साह ) हो ; मोक्ष के लिये अभीष्ट साधना में उसका उपयोग रहे; मोक्ष के प्रति उसकी निष्ठा (प्रीतिकरण) हो, मोक्ष की भावना से ही वह भावित रहे । " ‘आचारांगसूत्र' के अनुसार - "एकमात्र मोक्ष की ओर ही उसकी दृष्टि हो, मोक्ष की ओर ही उसका मन हो, मोक्ष का आकार ही उसके मन-मस्तिष्क में जम जाए, मोक्ष को आगे करके ( केन्द्र में रखकर ) वह गति - प्रवृत्ति करे तथा मोक्ष का ही वह आसेवन = आचरण करे ।" " मोक्षपुरुषार्थी-साधक के जीवन में इस प्रकार : की अनन्य निष्ठा-श्रद्धां-भक्ति मोक्ष के प्रति होनी चाहिए। तभी उसे मोक्षपुरुषार्थ में सफलता मिल सकती है। जैनदर्शन ने ईश्वर (परमात्मा) को जगत् के कर्त्ता - हर्त्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया है, अपितु आदर्श के रूप में उसको अवश्य स्वीकार किया है। उसने सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को ध्येय मानकर मोक्ष प्राप्त परमात्माओं को आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। साथ ही मोक्ष के विषय में उसने स्वयं पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। पिछले पृष्ठ का शेष एवं हि जीवराया णादव्वो, तह य सद्दहेयव्वो । अणु चरिदव्वो य पुणो, सो चेव दु मोक्खकामाण ॥ १८ ॥ (ख) भणंता अकरेंता य, बंध- मोक्ख-पहण्णिणो । वाया - विरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ (ग) जहणाम कोवि पुरिसो बंधणयम्हि चिरकाल-पडिवद्धो । तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणए तरस ॥ २८८ ॥ जइ ण वि कुणदिच्छेदं ण मुच्चए, तेण बंधण-वस्सो सं। काय बहुए वि सोरो पावइ विमोक्खं ॥ २८९ ॥ इय कम्मबंधणाणं, पएस-ठिइ-पयडिमेवमणुभागं । जाणतो वि णमुच्चइ, मुच्चए सो चेव जइ सुद्धो ॥ २९० ॥ Jain Education International - समयसार, गा. १७-१८ - उत्तराध्ययन, अ. ६, गा. १० -समयसार, गा. २८८-२९० १. (क) तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तद्दिट्ठोवउत्ते, तप्पियकरणे तब्भावणाभाविए । - अनुयोगद्वारसूत्र २८ (ख) तद्दिट्ठीए तम्मुत्तिए, तप्पुरक्कारे तस्सणी तन्निसेवणे । - आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ५, उ. ६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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