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________________ * २५६ * कर्मविज्ञान : भाग ८ मोक्षपुरुषार्थ की सिद्धि कैसे और कब होती है ? ___मोक्षपुरुषार्थ द्वारा शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के अभिलापी साधक को पद-पद पर अप्रमत्त होकर, उत्कृष्ट मोक्षभावों से भावित होकर, आत्मा को पर-भावों और विभावों से यथाशक्ति बचाते हुए मोक्षपथ पर निरन्तर श्रद्धा, प्रतीति, मचि, स्पर्शना, पालना और अनुपालना के साथ असंदिग्ध एवं सुदृढ़ होकर चलना है, तभी वह लक्ष्य सिद्ध कर सकेगा।' ___ मोक्षपुरुषार्थ की सिद्धि कब होती है ? 'पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय' में इसका निरूपण करते हुए कहा गया है-"जब अशुद्ध आत्मा समग्र विभावों के पार को प्राप्त करके अपने निष्कम्प चैतन्यस्वरूप को प्राप्त होता है, तव यह आत्मा कृतकृत्य होता है और सम्यक् प्रकार से (मोक्ष) पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त होता है। क्योंकि विपरीत श्रद्धान को नष्ट करके निज स्वरूप को यथावत् जानकर अपने स्वरूप से च्युत न होना ही (मोक्ष) पुरुषार्थसिद्धि का उपाय है।" मोक्षपुरुषार्थी सतत अप्रमत्त होना चाहिए ___ अतः मोक्ष-प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करने वाला साधक सतत सावधान, अप्रमत्त, जाग्रत, शुद्ध आत्म-स्वरूप को अविस्मृत होना चाहिए और प्रतिक्षण शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था का दीपक उसके चित्त-मन्दिर में प्रज्वलित रहना चाहिए। ___ निष्कर्ष यह है कि मुमुक्षु साधक को मोक्ष-प्राप्ति के लिए ईश्वर, परमात्मा या किसी देवी-देव या किसी भी शक्तिमान् प्राणी द्वारा देने पर भरोसा न रखकर या किसी के देने से मोक्ष मिल जाएगा, ऐसा विश्वास न रखकर स्वयं पुरुषार्थ से ही मोक्ष प्राप्त होगा, इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“बंध और मोक्ष तुम्हारे अंदर (आत्मा में) ही हैं।" मोक्ष-प्राप्ति के लिए दुर्लभ क्रमशः पन्द्रह अंग दूसरी बात यह है-मोक्ष-प्राप्ति ही जिसका लक्ष्य है, उसे सर्वप्रथम भलीभाँति यह समझ लेना चाहिए, मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता किसको और कव प्राप्त होती १. . . . . . ' सिद्धिमग्गं मृत्तिमग्गं, निजाणमग्गं निव्वाणमग्गं, सव्व दुक्खं हीणमग्गं सद्धहामि पत्तियामि रोएमि। फासेमि, पालेमि, अणुपालेमि। देखें-इन शब्दों की व्याख्या 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) में २. सर्व-विवतॊत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति, भवति तदा कृतकृत्यः, सम्यक्-पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः। विपरीताभिनिवेशं निरम्य सम्यग्व्यवम्य निजतत्त्वं, यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थ सिद्ध्युपायोऽयम्। -पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, श्लो. ११, १५ ३. अप्पमत्तो जए निच्चं। ४. बंध-मोखो अज्झत्थेव। -आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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