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________________ * २५४ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ® ___ इसी प्रकार गृहस्थ-साधकवर्ग के लिए भी श्रावकधर्म की मर्यादा में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विधान किया गया है। सातवें उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत में श्रावकवर्ग के उपभोग्य-परिभोग्य वस्तुओं की मर्यादा तथा आजीविकार्थ व्यवसाय-मर्यादा का निर्देश है। पाँच अणुव्रत तथा तीन गुणव्रतों का विधान एवं आठवें अनर्थदण्ड में मन-वचन-काया से निरर्थक हिंसादि पर नियंत्रण का निर्देश है। छठे दिशा-परिमाणव्रत में निरर्थक भ्रमण, व्यवसाय के लिए अमर्याद गमनागमन, विविध दिशाओं में अनावश्यक गमनागमनादि से होने वाले हिंसादि आनवों के निरोध का निर्देश है। क्या, . श्रावकवर्ग के लिए विहित बारह व्रत, उसके धर्मपुरुषार्थ तथा धर्मनियंत्रित अर्थ-कामपुरुषार्थ के अनुरूप नहीं है ?? दोनों वर्गों का अन्तिम लक्ष्य या ध्येय मोक्ष-प्राप्ति है परन्तु साधुवर्ग हो या श्रावकवर्ग (गृहस्थ-साधकवर्ग) दोनों के समक्ष लक्ष्य एक ही है, ध्येय समान ही है-सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष-प्राप्ति का अथवा शुद्ध आत्म-स्वरूप में स्थित होने का, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-सर्वदुःखों के अन्तकृत् होने का आत्मा से परमात्मा बनने का, परमात्मपद प्राप्त करने का। धर्मादि पुरुषार्थ मोक्ष-प्राप्ति के लिए है निष्कर्ष यह है, अन्ततोगत्वा सारा पुरुषार्थ मोक्ष-प्राप्ति के लिए है, मोक्षपुरुषार्थ के लिए ही तत्वज्ञ एवं मुमुक्षु-साधक धर्मपुरुषार्थ करते हैं तथा धर्मनियंत्रित अर्थ-कामपुरुषार्थ करते हैं। धर्मपुरुषार्थ सर्वपुरुषार्थों की प्राप्ति का मूल कारण 'पुरुषार्थ दिग्दर्शन' में कहा गया है-धर्मपुरुषार्थ सब पुरुषार्थों की प्राप्ति का मूल कारण है। धर्म से पुण्य, संवर एवं निर्जरा होती है। मोक्षपुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए संवर-निर्जरारूप धर्मपुरुषार्थ की सदैव आराधना करनी चाहिए। परन्तु चारों पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ माना गया है। इसी के आराधक पुरुष उत्तम पुरुष माने जाते हैं। जो लोग मोक्ष और धर्म की उपेक्षा करके अर्थ और कामपुरुषार्थ में ही अपनी शक्ति का व्यय करते हैं, वे अधम पुरुष हैं। ऐसे लोग बीज को खा जाने वाले किसान के सदृश हैं, जो भविष्य में धर्मोपार्जित पुण्य के नष्ट हो जाने पर दुःख पाते हैं। १. देखें-'श्रावकधर्म-दर्शन' (प्रवक्ता-उपाध्याय पुष्कर मुनि जी म.) से भाव ग्रहण २. (क) त्रिवर्गं तत्र सापायं जन्मजातक दूषितम्। ज्ञात्वा तत्वविदः साक्षाद्यतन्ते मोक्षसाधने॥ -ज्ञानसार ३/५ (ख) 'पुरुषार्थ दिग्दर्शन' के आधार पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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