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________________ * २५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * भेद-भक्ति वाला साधक वहीं अटककर रह जाता है। वह भेद-भक्ति से यानी भेद-भक्ति के अवलम्बन को छोड़कर अभेद-भक्ति में नहीं पहुंच पाता। और अभेद-भक्ति वह है, जिसमें अपनी ही आत्मा को परिपूर्ण शुद्ध परमात्म-स्वरूप जानकर उसकी भक्ति = श्रद्धा-प्रतीति-ज्ञान-भक्ति करके उसी में लीन होना अभेद-भक्ति है। जैसा कि एक आचार्य ने कहा है "मोक्ष-साधन-सामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी। स्व-स्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीमते॥" । -जितनी भी मोक्ष (सर्वकर्ममुक्ति) की साधन-सामग्री है, उनमें भक्ति ही सबसे बढ़कर है और आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुसन्धान करना-शुद्ध स्वरूप में लीन होना ‘भक्ति' कहलाती है। यद्यपि अभेद-भक्ति ही निश्चय-भक्ति = परमार्थ-भक्ति है, वह अपनी आत्मा की निश्चय रत्नत्रय में रमणतारूप भक्ति है। वही आत्मा पर आये हुए आवरणों को डायरेक्ट, शीघ्र नष्ट करने में अनन्तर कारण है, यही मुक्ति और मोक्षसुख का साक्षात्कारण है। कषायादि विभावों, विकारों और तज्जनित कर्मावरणों का शीघ्र सर्वथा नाश करके सीधा परमात्म (सिद्धत्व) पद प्राप्त करने के लिए आत्मा की अभेद-भक्तिपूर्वक आराधना आवश्यक है, किन्तु यह भक्ति. सातवें गुणस्थान की भूमिका से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान में परिपूर्ण होती है, उससे पूर्व साधक दशा में बहुधा प्रथम भेद-भक्ति होती है। जैनदृष्टि से पूर्वोक्त भेद-भक्ति में परमात्म-स्वरूप का विचार अपनी आत्मा की वर्तमान अवस्था निर्बलता-सबलता का विवेकपूर्वक विश्लेषण, परमात्मा के प्रति उत्साहपूर्वक बहुमान के साथ भक्ति तथा मोक्षलक्ष्यी या परमात्मभावलक्ष्यी दृष्टि होती है। सम्यग्दृष्टि मुमुक्षु आत्मा भेद-भक्ति की भूमिका में रहकर भी-“मैं स्वयं अर्हत् या सिद्ध परमात्मा हूँ। मुझमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आत्मिक आनन्द विद्यमान है।" मैं ऐसा ही परमात्मा हूँ, आत्मा में ही परमात्मा बनने की शक्ति है। यों अपनी आत्मा की पहचान = अनुभूति होती है, ऐसे भावों से युक्त होकर उसकी वह अभेदलक्ष्यी भेद-भक्ति शुद्ध व्यवहार-भक्ति हो जाती है। वह यह भी स्पष्ट ज्ञान-भान रखता है कि भेद-भक्तिवश आत्मा में शुभ राग अवश्य होता है, मगर आत्मा का स्वरूप शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के रागों से रहित है। ऐसी सतत प्रतीति और स्मृति आत्मा में रहे, ऐसा प्रयत्न अनिवार्य है। नीचे की भूमिका में वीतरागदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और शुद्ध धर्म आदि की भक्ति का शुभ भाव आता है, किन्तु ज्ञानी तत्त्वदृष्टि-परायण सम्यग्दृष्टि भक्त उसे शुभानव (पुण्य) का कारण समझता है। वह निश्चयदृष्टि से परम भक्ति नहीं है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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