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________________ ॐ भक्ति से सर्वकर्ममुक्ति : कैसे और कैसे नहीं ? २४५ पर्युपासना का परम्परागत फल सिद्ध (मोक्ष) गति पर्युपासना करने से अनन्तर और परम्परागत लाभ का दिग्दर्शन कराते हुए स्थानांग, भगवती, औपपातिक आदि आगमों में स्पष्टतः कहा गया है - "भंते ! तथारूप श्रमण अथवा माहन की पर्युपासना करने का क्या फल है ? इसके उत्तर में पर्युपासना का अनन्तर फल धर्म-श्रवण बताया गया। फिर क्रमशः धर्म-श्रवण से सम्यग्ज्ञान-प्राप्ति, ज्ञान-प्राप्ति से हेयोपादेय विवेकरूप विज्ञान-प्राप्ति, विज्ञान से प्रत्याख्यान (त्याग), उसका फल संयम, संयम का फल अनास्रव (कर्मानवनिरोधरूप संवर), संवर का फल तप, उसका फल व्यवदान ( कर्मनिर्जरा) तथा व्यवदान का फल अक्रिया (योग - प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध ) है और अक्रिया का फल निर्वाण और अन्त में सिद्ध (मोक्ष) गति प्राप्त कर जन्म-मरणादि रूप संसार एवं कर्मों का सर्वथा अन्त करना है।” इस आगमिक पाठ से स्पष्टतः सिद्ध है कि पर्युपासना से संयम, संवर, तप एवं उत्कृष्ट संवर प्राप्त होकर अन्त में कर्मों के कारणभूत समस्त कषायों का क्षय और योगों का सर्वथा निरोध हो जाता है। व्यक्ति विधिवत् पर्युपासना करे तो उसका जीवन आत्मा से परमात्ममय, सर्वकर्ममुक्त, सिद्ध, बुद्ध एवं परिनिर्वृत्त हो जाता है। आत्मा से परमात्मा बनने की सरल, सरस, सर्वोत्कृष्ट साधना पर्युपासनारूप भक्ति है। • अतः उपासना या पर्युपासना मनोवैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठ चिन्तन एवं उत्कृष्ट परमात्ममय जीवन निर्माण की प्रक्रिया है। परमात्म-भक्ति का यह सर्वोत्कृष्ट मोक्षफलदायक अंग है। भक्ति के इन सब घटकों और अंगोपांगों को समझने के लिये हमें उसका व्युत्पत्तिलक्ष्य अर्थ, फलितार्थ एवं विभिन्न भक्तिसूत्रों में दिये गये लक्षणों पर विचार करना चाहिए। तभी हम निर्णय कर सकेंगे कि कौन-सी भक्ति से सीधे ( अनन्तर ) सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष मिल सकता है ? कौन-सी भक्ति से आंशिक मुक्ति या परम्परा .से मुक्ति मिल सकती है ? कौन-सी भक्ति करने से वर्तमान में पुण्यराशि अर्जित की जा सकती है? जैन-कर्मविज्ञान के मर्मज्ञों ने किस भक्ति को मुक्ति-साधिका और उपादेय माना है। भक्ति शब्द एक : अर्थ, लक्षण और परिभाषाएँ अनेक भक्ति शब्द भज् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका सामान्यतया व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है - सेवा करना । किन्तु भक्ति शब्द का तात्पर्यार्थ और फलितार्थ इससे अधिक व्यापक है। भक्ति शब्द का तात्पर्यार्थ है - उपास्य या आराध्य की उपासना, सेवा, आराधना करना, उनके प्रति श्रद्धा करना, उनके गुणों के प्रति प्रशस्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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