SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ® २२८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ * आत्म-भावों-परमात्म-भावों में लीन होकर सर्वकर्मों से मुक्त, सिद्ध-बुद्ध परमात्मा बन गए। सर्वस्व न्योछावर करने की शक्ति तथा सहन-शक्ति मिलती है-परमात्म-भक्ति से निष्कर्ष यह है कि जिस प्रकार राष्ट्र के प्रति भक्तिमान् मनुष्य राष्ट्र की सेवा के लिए अपना तन, मन, धन, साधन और प्राण तक न्योछावर कर देते हैं। ऐसे अगणित मानव हुए हैं, होंगे, जिन्होंने राष्ट्र और समाज के लिए सर्वस्व होम दिया या होमते हुए नहीं हिचकते, फिर भी उन्हें आज कोई जानता तक नहीं। अपने, जीवन में उन्हें कोई भौतिक लाभ नहीं मिलता, फिर भी वे हँसते-हँसते सर्वस्व उत्सर्ग कर देते हैं। ऐसे समाज-सेवकों या राष्ट्रभक्तों को प्रायः उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान और अभावों तक का सामना करना पड़ता है। सांसारिक दृष्टि से उन्हें प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है; इसी प्रकार पूर्वोक्त प्रकार के परमात्म-भक्तों को भी या भगवदाज्ञाराधकों को भौतिक दृष्टि से प्रायः हानि ही उठानी पड़ती है। इससे स्पष्ट है कि ऐसे भक्ति-परायण साधकों को वैसी सहन-शक्ति और आनन्दोल्लास की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ की प्रेरणा लाभ-हानि के आकर्षण से नहीं मिलती, उन्हें प्रेरणा मिलती है-परमात्मा के प्रति निरुपाधिक-निःस्वार्थ-प्रीतिरूप्र, आज्ञाराधनारूप या उपासनारूप भक्ति से। अपने इष्ट के प्रति भक्ति प्रत्येक धर्म का आधारतत्त्व रहा है। जो व्यक्ति भक्तिशून्य है, वह चाहे जितना विद्वान् हो, तार्किक हो या वैज्ञानिक हो, उसकी अपनी शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक. पीड़ा के समय उसकी उपशान्ति में ज्ञान काम नहीं देता, वह कुण्ठित हो जाता है, उस समय परम-आप्त परमात्मा के प्रति भक्ति ही उसे शान्ति, सन्तुष्टि, आश्वासन एवं सांत्वना देने में कार्यकर होती है। भक्तिरस में सराबोर होकर व्यक्ति अपनी समस्त पीड़ा, वेदना, कष्ट एवं विपदा को विस्मृत करके आनन्द, उल्लास और प्रसन्नता का अनुभव करता है। वह उस दुःख या कष्ट को भगवान का प्रसाद, ज्ञान-प्राप्ति की खान, आत्मा की परमात्म-भक्ति की परीक्षा तथा कर्मनिर्जरा का अनायास प्राप्त अवसर मानकर परमात्म-भक्ति के प्रभाव से हँसते-हँसते उसका स्वागत करता है। १. तए णं से गयसुकुमाले अणगारे सोमिलस्स माहणस्स मणसा वि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं जाव दुरहियासं अहियासेइ। तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थज्झवसाणेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणमणुप्पदिट्ठस्स अणंते अणुत्तरे जाव केवलवरनाण-दंसणे समुप्पणे, तओ पच्छा सिद्धे जावप्पहीणे। -अन्तकृद्दशासूत्र, वर्ग ३, अ. ८ २. (क) 'अखण्डज्योति, अप्रेल १९७९' से भाव ग्रहण, पृ. २६ (ख) 'वीतराग वन्दना विशेषांक' (जैन भारती) से भाव ग्रहण, पृ. ९६-९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy