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________________ • २२६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ परमात्म-भक्ति बाह्यकरणों और अन्तःकरणों को शक्ति और आनन्द से भर देती है तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो शुद्ध आत्मा के निजी गुण हैं -आनन्द (अव्यावाध आत्मिक-सुख) और आत्मिक-शक्ति (बल-वीर्य)। ये दोनों गुण आत्म-वाह्य राग-द्वेषादि विभावों और सजीव-निर्जीव पर-भावों (पर-पदार्थों) में अत्यधिक रमणता के कारण दब जाते हैं, कुण्ठित और आवृत हो जाते हैं। यदि परमात्मा के प्रति निष्काम-भक्ति, परमात्म-गुणों के प्रति प्रीति की स्फुरणा अन्तःकरण में प्रादुर्भूत हो जाती है, तो समस्त वाचिक-कायिक करणों और मन-बुद्धि आदि अन्तःकरणों को आनन्द और शक्ति से ओतप्रोत कर देती है। उसके मन-मस्तिष्क में तथा अन्तस्तल में उस उमंग की, मस्ती की हर लहर आनन्द, उल्लास और आत्म-गुणों को विकसित करने की पुरुषार्थ-प्रेरणा के रूप में समग्र व्यक्तित्व को आप्लावित कर देती है। इस प्रकार परमात्म-भक्ति से अपने में आत्म-गणों की अभिव्यक्ति और परभावों-विभावों पर नियंत्रण करने, उनसे किनाराकसी करने तथा उन पर संयम करने की अगाध शक्ति आ जाती है। आत्म-गुणों, आत्म-भावों तथा परमात्म-भावों की उपलब्धि के लिये व्यक्ति के भीतर से गजब की शक्ति फूट पड़ती है। जब व्यक्ति का अभीष्ट प्रयोजन परमात्मा और उनके गुणों के प्रति अगाध भक्ति हो जाता है, तब उस प्रयोजन की पूर्ति के लिए उसमें पुरुषार्थ की आश्चर्यजनक शक्ति आ जाती है। उस कार्य में निष्ठापूर्वक तल्लीन होने से उसे अकथ्य आनन्द और उल्लास मिलता है। महोपाध्याय यशोविजय जी इसी तथ्य को स्पष्ट करते हैं “सारमेतन्मया लब्धं श्रुताब्धेरवगाहनात्। भक्तिर्भागवती बीजं परमानन्द-सम्पदाम्॥" -समस्त श्रुत-सागर (शास्त्ररूपी समुद्र) का अवगाहन करने से मुझे उसमें से यह सार मिला कि भगवान की भक्ति ही परमानन्द-सम्पदाओं का बीज है। परमात्म-भक्ति से सहिष्णुता, निर्भयता और आनन्द का उल्लास राजगृह नगर का सुदर्शन श्रमणोपासक भगवान महावीर की भक्ति में इतना तल्लीन हो गया कि उनके दर्शन और प्रवचन-श्रवण के लिये नगर के बाहर गुणशीलक उद्यान जाने में बीच में यक्षाविष्ट अर्जुनमाली का भयंकर आतंक और मारणान्तिक उपसर्ग उपस्थित था, फिर भी तथा अनेक लोगों के मना करने पर भी १. 'अष्टकप्रकरण' (महोपाध्याय यशोविजय जी) से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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