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________________ * निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा, इन ५ भेदों की स्थापना करने से ३६ × ५ - = १८० भेद हुए । एकान्त क्रियावाद के गुण-दोष की समीक्षा एकान्त क्रिया (सत्क्रिया = सम्यक्चारित्र) से मोक्ष नहीं होता, उसके साथ सम्यग्ज्ञान होना चाहिए। कहा भी है- “पढमं नाणं, तओ दया । " ज्ञानरहित क्रिया से वद्धकर्म का क्षय नहीं होता, न ही आते हुए कर्मों का निरोधरूप संवर हो सकता है। ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया से या क्रियानिरपेक्ष कोरे ज्ञान से सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष नहीं होता । इसीलिए विद्या (ज्ञान) और चरण ( चारित्र क्रिया) दोनों से मोक्ष कहा । क्रिया से ही मोक्ष होता है, यह एकान्तिक कथन है तथा सुख-दुःखादि का अस्तित्व है, यह कथन भी ठीक है, परन्तु सभी कुछ क्रिया से ही होता है, यह एकान्त प्ररूपणा मिथ्या है। यदि एकान्तरूप से सभी पदार्थों का अस्तित्व माना जाएगा तो वह कथंचित् (परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से) नहीं है। यह सत्य कथन घटित नहीं हो सकेगा। एकान्त अस्तित्व मानने से जगत् के समस्त व्यवहारों का उच्छेद हो जाएगा। प्रत्येक वस्तु-स्वरूप से है, पर स्वरूप से नहीं है, ऐसा सत्य कथन सम्यक् क्रियावाद का है । ' = २१७ एकान्त अक्रियावाद भी मोक्ष का कारण नहीं एकान्तरूप से जीव आदि पदार्थों का जिस वाद में निषेध किया जाता है तथा . उसकी क्रिया, आत्मा, कर्मबन्ध, कर्मफल आदि जिस वाद में बिलकुल नहीं माने जाते, उसे अक्रियावाद कहते हैं। अक्रियावाद के कुल ८४ भेद अक्रियावाद के कुल ८४ भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं- जीव आदि ७ पदार्थों को क्रमशः लिखकर, उसके नीचे स्वतः और परतः ये दो प्रकार स्थापित करने चाहिए। इस प्रकार ७ × २ १४ ही पदों के नीचे (१) काल, (२) यदृच्छा, (३) नियति, (४) स्वभाव, (५) ईश्वर, और (६) आत्मा, इन ६ पदों को रखना . चाहिए। जैसे- जीव स्वतः काल से नहीं है, जीव परतः काल से नहीं है तथा जीव = स्वतः यदृच्छा से नहीं है, जीव परतः यदृच्छा से नहीं है, इसी प्रकार नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ भी प्रत्येक के स्वतः परतः ये दो-दो भेद होते हैं। यों जीवादि सातों पदार्थों के ७ स्वतः परतः के भेद से ७ x २ १४ भेद हुए, फिर काल, यदृच्छा आदि ६ भेद प्रत्येक के साथ मिलाने से ७ × २ ८४ भेद अक्रियावाद के - = १४ × ६ हुए। Jain Education International १. (क) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति, पत्रांक २१८-२२० (ख) वही, श्रु. १, अ. १२, गा. ११-१७, विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. ४०९-४१२ For Personal & Private Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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