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________________ ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? * २१५ ॐ सज्जन-दुर्जन, धर्मात्मा-पापी, सुबुद्धि-दुर्बुद्धि, सुज्ञानी-अज्ञानी आदि सभी को एक सरीखा मानकर वन्दन-नमन, मान-सम्मान, दान आदि देते हैं। वास्तव में देखा जाए तो यह विनय नहीं है, विवेकहीन प्रवृत्ति है। जो साधक विशिष्ट (उच्च) धर्माचरण अर्थात् साधुत्व की साधना या क्रिया नहीं करता, उस असाधु को विनयवादी केवल वन्दन-नमन आदि औपचारिक विनय क्रिया करने मात्र से साधु मान लेते हैं। वे विशुद्ध धर्म (कर्मक्षयरूप) या संवर-निर्जरारूप अथवा सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म के परीक्षक नहीं हैं, सिर्फ औपचारिक विनयमात्र से धर्मोत्पत्ति मान लेते हैं। वे प्रज्ञा से वास्तविक धर्म की जिज्ञासा, समीक्षा या परीक्षाबुद्धि नहीं करते। विनयवाद के गुण-दोष की समीक्षा यद्यपि विनय चारित्र का अंग है, परन्तु सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना विवेकविकल केवल उपचार विनय सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग का अंगभूत विनय नहीं है। अगर विनयवादी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप विनय की विवेकपूर्वक आराधना-साधना करें, साथ ही आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़े हुए जो अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा हैं, पंचमहाव्रती निर्ग्रन्थ रत्नत्रयाराधक चारित्रात्मा हैं, उनकी विनय भक्ति करें, तो उक्त मोक्षमार्ग के अंगभूत विनय से उन्हें स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है। परन्तु इसे ठुकराकर अध्यात्मविहीन, अविवेकयुक्त, मताग्रहगृहीत, मतव्यामोह प्रेरित एकान्त औपचारिक विनय से सभी प्रयोजनं की सिद्धि या स्वर्ग-मोक्ष-प्राप्ति बतलाना उनका एकान्त दुराग्रह है, मिथ्यावाद है। उक्त प्रकार के विनय से सर्वकर्मक्षयरूप धर्म या पुण्य भी होना दुष्कर है।' बौद्धों द्वारा अक्रियावाद की प्ररूपणा करने पर भी प्रकारान्तर बौद्धमत के सर्वशून्यतारूप अक्रियावाद के अनुसार कोई भी परलोकगामी तथा कोई क्रिया या गतियाँ और कर्मबन्ध भी सम्भव नहीं है, फिर भी बौद्धशासन में ६ गतियाँ मानी गई हैं। जब गमन करने वाला कोई आत्मा ही नहीं है, तब गमनक्रिया से फलित गतियाँ कैसी? क्रिया न होने से अनेक गतियों का होना सम्भव नहीं। बौद्धं त्रिपिटकों में सभी कर्मों को अबन्धन माना गया है। यदि कर्म बन्धकारक नहीं १. (क) सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता। जे मे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणइंसु नाम॥३॥ अणोवसंखा इति ते उदाहु, अटे स आभासति अम्ह एवं। ॥४॥ __ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १२, गा. ३-४ (ख) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति पत्रांक २११-२४१ (ग) वही, पत्रांक २०८ (घ) सूत्रकृतांग नियुक्ति, गा. ११९ (ङ) वही, श्रु. १, अ. १२, गा. ३-४, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४०४-४०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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