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________________ ॐ निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे ? २१३ परन्तु अज्ञानवादियों का यह आक्षेप निराधार है। अज्ञानवादी स्वयं मिथ्यादृष्टि हैं। सम्यग्ज्ञान' से रहित, संशय और भ्रम से ग्रस्त हैं। वस्तुतः परस्पर या पूर्वापर विरुद्ध अर्थ या पदार्थस्वरूप बताने वाले असर्वज्ञ-प्रणीत आगमों को मानते हैं, किन्तु इससे समस्त सिद्धान्तों को आँच नहीं आती । सर्वज्ञप्रणीत आगमों को मानने वाले वादियों के वचनों में पूर्वापर विरोध नहीं आता। क्योंकि सर्वज्ञता के लिये ज्ञान पर आया हुआ आवरण तथा उसके कारणभूत राग-द्वेष-मोह आदि विकारों का सर्वथा नष्ट हो जाना अनिवार्य है । सर्वज्ञ में इन दोषों का सर्वथा अभाव होने से उसके वचन सत्य हैं, परस्पर या पूर्वापर विरुद्ध नहीं हैं। अतः सर्वज्ञप्रणीत आगमज्ञानवादी परम्पर विरुद्धभाषी नहीं । वे आत्मा को एकमत से सर्वशरीरव्यापी तथा चेतनाशील मानते हैं। अज्ञानवादग्रस्त जब स्वयं सन्मार्ग (मोक्षमार्ग) से अनभिज्ञ हैं, तब उनके नेतृत्व में बेचारा दिशामूढ़ अनुगामी मार्ग से अनभिज्ञ होकर अत्यन्त दुःखी होगा । फिर तो वही कहावत चरितार्थ होगी - अन्धे मार्गदर्शक के नेतृत्व में चलने वाला दूसरा अन्धा भी मार्गभ्रष्ट हो जाता है। वैसे ही सम्यक् मोक्षमार्ग से अनभिज्ञ अज्ञानवादी के पीछे चलने वाले नासमझ पथिक का भी वही हाल होता है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्ज्ञान के बिना पदार्थों का यथार्थ स्वरूप कैसे समझा जा सकता है ? अतः अज्ञानवादी संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय एवं महाभ्रान्तिरूप अज्ञान के शिकार होकर परस्पर असम्बद्ध भाषण करते हैं। अज्ञानवादी साधक मोक्षमार्ग से दूर, संसारमार्ग के पोषक इतना होने पर भी कई (प्रथम प्रकार के ) अज्ञानवादी साधुवेष धारण करके मोक्षार्थी बनकर कहते हैं - " हम ही सच्चे धर्म के आराधक हैं।” किन्तु संवर-निर्जरारूप या सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप धर्म की आराधना का क, ख, ग भी वे नहीं जानते।” वे अज्ञानान्धकारग्रस्त होकर षट्काय के उपमर्दनरूप आरम्भसमारम्भ में स्वयं प्रवृत्त होते हैं, दूसरों को कर्मक्षयरूप धर्म के नाम पर भ्रमवश अधर्म (पुण्य या पाप) का उपदेश देते हैं। उक्त हिंसादि पापारम्भ से, रत्नत्रयरूप धर्माराधना या मोक्षमार्ग की साधना तो दूर रही, उलटे वे संसारमार्ग या अधर्ममार्ग का उपदेश देकर लोगों को गुमराह करते हैं। वे स्वयं संयम एवं सद्धर्म के मार्ग को ठुकरा देते हैं, न ही सद्धर्मप्ररूपकों की सेवा में बैठकर उनसे सद्धर्मतत्त्व, मोक्षमार्ग . का तत्त्व समझते हैं। धर्माधर्म के तत्त्व से अनभिज्ञ वे लोग कुतर्कों का सहारा लेकर अपनी मान्यता. सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। जैसे पिंजरे में बंद पक्षी उसे तोड़कर बाहर निकल नहीं सकता, वैसे ही अज्ञानवादी अपने मतवादरूपी या संसाररूपी पिंजरे को तोड़कर बाहर नहीं निकल सकते। वे केवल अपने ही मत की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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