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________________ 8 निश्चयदृष्टि से मोक्षमार्ग : क्या, क्यों और कैसे? 8 २०७ 8 इस कारण भी वे आत्मा के धर्म, स्वभाव और गुणों को नहीं जान पाते, न ही उन्हें मानते हैं। वे तो प्रायः हिंसादि पापकर्मों को ही आत्मा का स्वाभाविक धर्म समझे बैठे हैं। इस प्रकार वे या तो आत्मा को ही नहीं मानते अथवा मानते हैं तो पूर्वोक्त विपरीत रूप से मानते हैं, तब वे आत्मा के धर्म, स्वभाव या निजी गुणों को कैसे जान सकते हैं ? अथवा आत्मा को जान-मानकर भी वे उसके साथ संलग्न होने वाले कर्मबन्ध को तोड़कर आत्मा के निजी धर्म में रमण नहीं कर पाते। कदाचित् वे शुभ कर्मजनित पुण्यबन्धवश स्वर्ग पा सकते हैं, किन्तु जन्म-मरणादि दुःखों से सर्वथा मुक्ति नहीं पा सकते हैं, जोकि सर्वकर्मक्षय से ही प्राप्त हो सकती है और न ही मोक्ष (साध्य) के मार्ग (उपाय अथवा साधन) के लिए तीर्थंकरों द्वारा आचरित, प्ररूपित एवं अनुभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपरूप धर्म' की आराधना-साधना कर पाते हैं। अतएव वे आत्मा के सर्वकर्मक्षयरूप या स्वात्म-स्वरूप में अवस्थानरूप मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि आत्म-धर्म के ज्ञान और आचरण से कोसों दूर हैं। वे पूर्वोक्त रूप से मिथ्यात्व के गाढ़तम अन्धकार में ही लिपटे रहते हैं, स्वयं पूर्वोक्त मिथ्यावादों के कदाग्रहरूप मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं, वे जीव धर्म, मार्ग, साधु और मुक्त के विषय में विपरीत मान्यतारूप दशविध मिथ्या-श्रद्धा से युक्त हैं। उनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप को जानने, मानने, आचरण करने की जिज्ञासा, बोध-प्राप्ति की इच्छा ही नहीं है, फिर वे हजारों-लाखों जनसमूह के समक्ष सस्ती, सुलभ, स्व-पर स्वीकाररूप मुक्ति को दुःखमुक्ति के रूप में प्ररूपित कर, मुक्ति का झूठा आश्वासन व प्रलोभन देकर उन्हें भी मिथ्यात्व-विष का पान कराते हैं। तब भला वे चतुर्गतिकरूप जन्म-मरण-परम्परा के दुःखों को भोगे बिना कैसे छूट सकेंगे? इसीलिए 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया-“ऐसे मिथ्यावाद प्ररूपक उच्च-नीच गतियों में परिभ्रमण करेंगे, पुनः-पुनः गर्भ में आएँगे।"३ १. नाणं च दसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं॥ -उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. २ २. दसविहे मिच्छत्ते पण्णत्ते तं.-अधम्मे धम्मसण्णा, धम्मे अधम्मसण्णा, मग्गे उम्मग्गसण्णा, उम्मग्गे मग्गसण्णा, अजीवेसु जीवसण्णा, जीवेसु अजीवसण्णा, असाहुसु साहुसण्णा, साहुसु असाहुसण्णा, अमुत्तेसु मुत्तसण्णा, मुत्तेसु अमुत्तसण्णा। -स्थानांग, स्था. १0, पृ. ३०४ ३. (क) णाणाविहाई दुक्खाइं अणुभवंति पुणो पुणो। संसारचक्कवालम्मि वाहि-मच्चू जराकुले ॥२६॥ उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संतऽणंतसो। नायपुत्ते महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥२७॥ -सूत्रकृतांग १/१/१/२६-२७ (ख) सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १, उ. १, गा. २६-२७, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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