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________________ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप १८७ मिथ्यात्व-मोहादिजनित दुःखों को स्वयं मिटा नहीं पाते; अर्थात् वे स्वयं दुःखों से मुक्त नहीं हो पाते, संसार-सागर से पार होने का स्वयं कोई उपाय नहीं कर पाते, तब वे दूसरों को दुःखों से कैसे मुक्त कर देंगे या उन्हें संसार-सागर से कैसे पार कर देंगे?" वे दार्शनिक स्वयं दुःखों से मुक्त नहीं हो पाते, इसके मूल कारण दो हैं(१) संधि को जाने बिना ही वे क्रिया में प्रवृत्त हो जाते हैं। (२) वे धर्मवेत्ता, धर्मज्ञ, धर्म-ज्ञाता, धर्म-तत्त्वज्ञ, धर्म-रहस्यज्ञ तथा धर्म-मर्मज्ञ नहीं हैं। वे अन्यतीर्थिक, अन्य मतवादी मिथ्यासिद्धान्तों के प्ररूपक होने से न तो जन्म-मरण की परम्परा का उच्छेद कर पाते हैं, न वे चातुर्गतिक संसार-समुद्र को पार कर पाते हैं; न वे गर्भ में पुनः-पुनः आवागमन को मिटा पाते हैं; न वे जन्म परम्परा को पार कर सकते हैं, न ही दुःख-सागर या मृत्यु के पारगामी हो सकते हैं। वे मिथ्यात्वग्रस्त होकर जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि से परिपूर्ण इस संसार-चक्र में पुनः पुनः नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते-दुःखों को भोगते हैं। अतएव जो मतवादी आत्मा को ही नहीं मानते हैं। आत्मा को मानकर भी कतिपय मतवादी संसारमार्ग का ही परिपोषण करते हैं, जिनकी दृष्टि आत्म-लक्ष्यी नहीं है, वे बातों के बल पर कैसे मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ? कर्मबन्ध के कारणों को दूर किये बिना सर्वदुःखमुक्ति कैसे होगी ? शास्त्रकार का आशय यह है कि जब तक जीवन में मिथ्यात्व, हिंसादि से अविरति, प्रमाद, कषाय और योग रहेगा, तब तक चाहे वह पर्वत पर चला जाए, घोर वन में जाकर ध्यान लगा ले; अनेक प्रकार के कठोर तपश्चरण कर ले अथवा विविध कठोर क्रियाएँ भी कर ले, फिर भी वह जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, गर्भावास इत्यादिरूप संसार-चक्र-परिभ्रमण के घोर दुःखों को सर्वथा समाप्त नहीं कर सकता।' प्रथम प्रबल कारण : संधि की अनभिज्ञता संधि की अनभिज्ञता के कारण वह मोक्ष-प्राप्ति के द्वार स्वयं बंद कर देता है, संधि के ‘पाइअ-सद्द-महण्णवो' में छह अर्थ बताये हैं-(१) अवसर, (२) संयोग, (३) जोड़ या मेल, (४) मत या अभिप्राय, (५) विवर = छिद्र, तथा (६) उत्तरोत्तर पदार्थ-परिज्ञान। इन अर्थों के प्रकाश में वे कैसे संधि से अनभिज्ञ हैं ? इसका निरूपण करते हैं-(१) आत्मा के साथ कर्म का कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे संयोग, जोड़ या मेल है ? (२) आत्मा के साथ कर्मबन्ध की संधि कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे, किन-किन कारणों से हो जाती है ? (३) आत्मा कैसे, किस प्रकार कर्मवन्ध से रहित हो सकता है ? इस सिद्धान्त, रहम्य, मत या अभिप्राय को वे (४) उत्तरोत्तर अधिकाधिक पदार्थों (तत्त्वभूत पदार्थों) को नहीं जान पाते, (५) ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का विवर (रहस्य) नहीं जान पाते, (६) आत्मा को कर्मबन्ध से मुक्ति का अवसर कैसे १. (क) सूत्रकृतांगसूत्र, शीलांक वृत्ति, श्रु. १, अ. १, उ. १, गा. २०-२७, विवेचन, पत्रांक २८ . (ख) वही, श्रु. १, अ. १, उ. १, विवेचन (आ. प्र. स., व्यावर), पृ. ४१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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