SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० कर्मविज्ञान : भाग ८ ने शीतल जल आदि का सेवन करके मोक्ष प्राप्त किया था। अमित, देवल, द्वैपायन और पाराशर महर्षि ने शीत ( सचित्त) जल और हरी वनस्पति का उपभोग करके. सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की थी; ऐसा मैंने (कुतीर्थिक या स्वयूथिक ने ) परम्परा से ( महाभारत आदि पुराणों से) सुना है । पूर्वकाल में ( त्रेता, द्वापर आदि युगों में ) ये महापुरुष सर्वत्र विख्यात रहे हैं और इनमें से कोई-कोई ऋषि आर्हत् प्रवचन (इसि भासियाई आदि) में सम्मत ( मान्य) किये गये हैं ।" इस प्रकार के भ्रान्तिजनक (बुद्धिभ्रष्ट, आचार भ्रष्ट या साध्यभ्रष्ट करने वाले) कुशिक्षारूपी उपसर्ग के होने पर अपरिपक्ववुद्धिं या मन्दबुद्धि साधक (मोक्ष के वास्तविक मार्ग को छोड़कर, इनके बहकावे में आकर) संसार की सुख-सुविधाजनक अनाचाररूप प्रवृत्ति को आचाररूप समझकर उसमें प्रवृत्त हो जाता है। पूर्वोक्त प्रकार से पूर्वकालिक ऋषियों की (उनके पूर्व जीवन की ) दुहाई देकर मन्दबुद्धि साधकों को मार्गभ्रष्ट, आचारभ्रष्ट या बुद्धिभ्रष्ट कर दिया जाता है, उन्हें अनाचार में फँसाया जाता है । इस प्रकार की सस्ती, सुगम मुक्ति (सिद्धि) की बातें सुनकर सुविधावादी मंदबुद्धि साधक भारवहन से पीड़ित गधों की तरह ( वास्तविक मोक्षमार्ग पर चलने में ) दुःखानुभव करते हैं। जैसे लकड़ी के टुकड़ों को पकड़कर घिसटते हुए चलने वाला लँगड़ा मनुष्य अग्निं आदि का उपद्रव होने पर भागने वाले लोगों के पीछे-पीछे सरकता हुआ चलता है, इसी तरह मंदमति साधक भी मोक्षयात्रियों के पीछे रेंगता हुआ चलता है। इस प्रकार वह साधक गलत साधनों को अपनाकर साध्य से भ्रष्ट व विचलित हो जाता है । ' 9. (क) आहंसु महापुरिसा पुव्विं तत्त तवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदे विसीयती ॥ १ ॥ अभुंजियागमी वेदेही, रायगुत्ते य भुंजिया । बाहुए उदगं भोच्चा तहा तारागणे रिसी ॥२॥ आसिले देविले चेव, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि-हरियाणि य ॥ ३ ॥ एते पुव्वं महापुरिसा आहिता इह संमता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मे तमणुस्सुतं ॥४॥ तत्थमंदा विसीयंति, वाहछिन्ना व गद्दभा । पिट्ठतो परिसप्पति, पीढसघी व संभमे ॥ ५ ॥ (ख) सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ४, गा. १-५, मूल पाठ व विवेचन ( आ. प्र. स., व्यावर) से भाव ग्रहण, पृ. २२४-२२८ (ग) देखें- नमि वैदेही के विषय में - (i) भागवत् ९ / १३ / १-१३ (ii) सुत्तपिटक के चरियापिटक (पाली) में नमिराज - चरिया; (iii) उत्तराध्ययन, अ. ९ में नमिपवज्जा (इन्द्र-नमिराजर्षि संवाद ) (घ) देखें-'इसिभासियाई' में- अ. १३ रामपुत्तिय अध्ययन, १४वाँ वाहुकंज्झयणं, ३६वाँ तारायणिज्जज्झयणं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy