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________________ • मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप 8 १७७ ॐ सम्यक्चारित्र के इन लक्षणों के परिप्रेक्ष्य में 'सूत्रकृतांग' के 'मार्ग' नामक अध्ययन में भाव (मोक्ष) मार्ग के सन्दर्भ में मोक्षमार्ग के प्रथम महत्त्वपूर्ण सोपान अहिंसा और समता तथा शमता के सम्बन्ध में छह गाथाओं द्वारा साधना-विधि का निर्देश दिया गया है, जिसका भावार्थ इस प्रकार है-(१) त्रस और ग्थावर रूप षट्काय में संसारी जीवों का अस्तित्व है, जिसे षड्जीवनिकाय कहते हैं। (२) बुद्धिमान् मुमुक्षु साधक इन जीवों में जीवत्व सिद्ध करके सम्यक् रूप से जाने-देखे कि सभी संसारी जीव अपने पूर्वकृत कर्मों के कारण दुःखों से आक्रान्त हैं अथवा सभी जीवों को दुःख अप्रिय (अकान्त) हैं। (३) अतः किसी भी जीव की हिंसा न करे, क्योंकि हिंसा से जीव को दुःख होता है। (४) ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार अहिंसा (द्रव्य और भाव से हिंसा न करना) है। अहिंसा का विधेयात्मक रूप समता (प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्यभाव) है। (५) अहिंसा सिद्धान्त का इतना ही सार-सर्वम्व है कि लोक में जो भी त्रस या स्थावर जीव हैं, उनकी हिंसा से सदा सर्वत्र विरत हो जाए। (६) द्रव्य-भावरूप अहिंसा ही शान्तिमय निर्वाण की कुंजी है। (७) मोक्षमार्ग के आचरण में समर्थ साधक को अहिंसा के सन्दर्भ में मिथ्यात्व, अविरति (पंचानवों से विरत न होना), प्रमाद, कषाय एवं योगरूप दोषों (कर्मबन्ध हेतुओं) से दूर रहकर किसी भी प्राणी के साथ मन-वचन-काया से जीवनभर वैर-विरोध नहीं करना चाहिए।' सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में एषणासमिति विवेक-निर्देश . इसी अहिंसादि व्रताचरणरूप सम्यक्चारित्र के सन्दर्भ में इसी अध्ययन में तीन गाथाओं द्वारा एषणासमिति पालन-विवेक बताया गया है, जिसका सारांश यह है साधुवर्ग की आवश्यकताएँ बहुत ही सीमित होती हैं-थोड़ा-सा आहार-पानी और कुछ वस्त्र-पात्रादि उपकरण। इस थोड़ी-सी आवश्यकता की पूर्ति भिक्षाजीवी साधुवर्ग सम्यक्चारित्र के परिप्रेक्ष्य में अपने अहिंसादि महाव्रतों को सुरक्षित रखते हुए एषणासमिति का पालन करते हुए निर्दोष भिक्षावृत्ति से करे। यदि एषणासमिति की उपेक्षा करके त्रिविधएषणा दोषों से युक्त अकल्पनीय-अनैषणीय आहारादि साधुवर्ग ग्रहण करेगा तो उसका अहिंसा महाव्रत दूषित होगा। आरम्भजनित दोष पिछले पृष्ठ का शेष(ग) मनसा-वाचा-कायेन कर्तव्यम्य च संवरहेतोरुपादानं। __गुप्तिसमिति-धर्मानुप्रेक्षापरिषहजयानामुपादानं चारित्रम्॥ -भगवती आराधना विजयोदया ९ (घ) समस्त-सावद्ययोग-परिहरणात् चारित्रं भवति यतः।। . सकलकपाविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्॥ -पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय ३९ १. (क) सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ११. गा. ७-११, मू. विवेचन, पृ. ३८८-३८९ (ख) वही, शीलांक वृत्ति, पत्रांक २00 का सारांश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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