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________________ @ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप 8 १७५ ॐ अकेला सम्यक्चारित्र या समत्व भी मोक्ष का मार्ग है : क्यों और कैसे ? 'उत्तगध्ययनसूत्र' के मोक्षमार्गगति नामक अध्ययन में कहा गया है“सम्यग्दर्शन न हो तो ज्ञान सम्यक नहीं होता और सम्यग्ज्ञान न हो तो चारित्रगुण भी सम्यक् नहीं होता। सम्यक्चारित्रगुण के बिना मोक्ष कतई सम्भव नहीं है और मोक्ष के विना निर्वाण प्राप्त नहीं हो सकता। इसी दृष्टि को लेकर 'प्रवचनसार' में कहा गया है-"चारित्र (सम्यक्चारित्र) ही धर्म (रत्नत्रयरूप धर्म या रत्नत्रययुक्त मोक्षमार्ग) है। और जो यह धर्म है, वह समरूप (समता या शमता के रूप) में निर्दिष्ट है। आत्मा का मोह और क्षोभ (कपाय) से विहीन परिणाम ही वास्तव में सम या शम है।" इस दृष्टि से सम्यक्चारित्र ही मोक्ष का प्रधान मार्ग है। क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होगा, वहीं चारित्र सम्यक् होगा। सम्यक्चारित्र (महाव्रतादियुक्त) को ही मोक्ष का मार्ग (प्रधानतपः) बताया है, वह इस अपेक्षा से है कि जहाँ सम्यक्चारित्र आएगा, वहाँ सम्यज्ञान अवश्यम्भावी है। और ज्ञान भी सम्यक् तभी होता है, . जव दर्शन सम्यक् हो। अतः सम्यक्चारित्र या सामायिकचारित्र (समता) में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का समावेश हो जाता है। इसी दृष्टि से 'राजवार्तिक' में कहा गया-“अनन्ताः सामायिकसिद्धाः।'-सामायिक (चारित्र) से अनन्त जीव सिद्ध हो गये। यह वचन भी तीनों के एकत्वरूप समताभावरूप चारित्र का समर्थन करता है; क्योंकि समताभावरूप चारित्र ज्ञानरूप आत्मा के तत्त्वश्रद्धानपूर्वक ही हो सकता है।' पिछले पृष्ठ का शेष (ग) देखें-भगवतीसूत्र में सुप्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान-अधिकार (घ) तवरहियं जं पहाणं, णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। __तम्हा णाणतवेण संजुत्तो लहइणिव्वाणं ।। --मोक्षपाहुड ५९ (ङ) हयं नाणं किरियाहीणं. हतं चान्नाणओ क्रिया। पासंतो पंगुलो दिट्ठो, धावमाणो य अंधलो। संजोगसिद्धिए सफलं वयंति, न हु एकचक्केण रहो पयाइ। . अंधो य पंगो य समिच्च लोए, ते संपहुत्ता नगरं पविठ्ठा । -महानिशीथसूत्र १. (क) नत्थि चरित्तं सम्मत्तविहूणं. दंसणे उ भइयव्वं । समत्त चरित्ताई जुगवं पुव्वं च सम्मत्तं ॥२९॥ नादंसणिम्स नाणं, नाणेण विण न हंति चरणगुणा। अगणिम्प नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥३० ।। -उत्तरा., अ. २८, गा. २९-३० (ख) चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो सो समोत्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥ -प्रवचनसार १/७ (ग) हतं ज्ञानं क्रियाहीनं. हता चाज्ञानिनः क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः ।। संयोगमेवेह वदन्ति तज्जाः, नोक चक्रेण रथः प्रयाति। अन्धश्च पंगुश्च बने प्रविष्टौ, तौ सम्प्रयुक्तौ मगरं प्रविष्टौ॥ -राजवार्तिक १/१/४९/१४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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