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________________ ४ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप १७३४ केवल पठन-पाठन जीव को पाप से कैसे बचा सकेगा ? पापकर्मों में रचे-पचे रहने वाले स्वयं को पण्डित मानने वाले अज्ञ ( मूर्ख) मानव ( बाह्य ज्ञान के भरोसे निःशंक होकर) पाप में गहरे-गहरे डूबते जाते हैं। ऐसे सुख-सुविधावादी ज्ञानगर्वित मनुष्य किस प्रकार दुःख-मुक्त होने के बदले दुःखी होते हैं ? इसके लिए कहा है- जो व्यक्ति मन, वचन, काया से शरीर, वर्ण और रूप में आसक्त रहते हैं, वे सव अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं । अर्थात् ऐसे शुष्क ज्ञानवादी ( बुद्धिवादी) प्रायः इन्द्रिय-विषयों में, धनादि परिग्रह में तथा शरीर - सुखादि में आसक्त होने के कारण अपने लिए दुःखों को ही आमंत्रित करते हैं। ऐसे बुद्धि (ज्ञान) वादी लोग मानते हैं कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है, आचरण ( चारित्र-क्रिया) की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग बन्ध और मोक्ष की लम्बी-चौड़ी व्याख्या करते हैं, उनके कारणों को जानते हैं, किन्तु बन्ध (कर्मबन्ध के कारणों का ) तथा मोक्ष (समग्र साधनों ) के अनुसार आचरण (क्रिया) नहीं करते। अतः ऐसे वाणीशूर व्यक्ति वचन के आडम्बर से अपनी आत्मा को आश्वासन देते रहते हैं । ' • एकान्त ज्ञान और तप दोनों ही मोक्ष प्राप्तिकारक नहीं कई मतवादी कहते हैं कि हम ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त कर लेंगे, हमें तप की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार एकान्त तपश्चरणवादी कहते हैं कि तपश्चरण करने वालों को ज्ञान की क्या आवश्यकता है ? तपस्या से ही कर्मक्षय हो जाता है । जैसे- ए - एकान्त 'ज्ञानवादी तप का निषेध करते हुए कहते हैं - ऐसे (बाह्य) तप तो जीव ने अनन्त बार किये, परन्तु उससे आत्मा का कोई हित नहीं हुआ। इतना ही नहीं, ऐसे तपस्या करने वाले लोग अपने तपस्या का मद (अहंकार) करके ज्ञान को तुच्छ मानकर तपस्या से ही मुक्ति प्राप्त कर लेने के आग्रही बन जाते हैं। इससे भी आगे बढ़कर कई लोग तो तपोमद से गर्वित होकर अपने समान दूसरों को कुछ भी न गिनकर तृण समान अत्यन्त तुच्छ मानते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति की ज्ञान-प्राप्ति में बिलकुल रुचि न होने से वे ज्ञान और ज्ञानीजनों का अवर्णवाद करते हैं; यहाँ तक कि कोई-कोई तपोमद से गर्विष्ठ व्यक्ति ज्ञानाभ्यासी तथा ज्ञान के उपदेशक को भाट १. इहमेगेउ मन्नंति अपच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ता णं सव्वदुक्खा विमुच्च ॥१९॥ न चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणुसासणं । विसन्ना पावकम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो ॥ १० ॥ जे केइ सरीरे सत्ता व रूवे य सव्वसो । मणसा कायवक्वेणं. सव्वे ते दुक्खसंभवा ॥११॥ आवन्ना दीहमद्धाणं संसारम्मि अनंतए । भता अ करता य बंध मोक्ख-पइण्णिणो । वाया वीरियमेत्तेण, समासासेंति अप्पणं ॥ १२ ॥ Jain Education International || For Personal & Private Use Only - उत्तराध्ययन ६/९-१२ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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