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________________ ॐ मोक्षमार्ग का महत्त्व और यथार्थ स्वरूप १६१ : करने तथा सांसारिक तीव्र रागादि से वृद्धि कलुषित एवं मोह-मूर्छित होने से सन्मार्ग की विराधना करके कुमार्गाचरण करने के कारण वे शुद्ध भाव (मोक्ष) मार्ग से दूर हैं। जैसे-छिद्र वाली नौका में बैठा हुआ जन्मान्ध व्यक्ति नदी पार न होकर मझधार में ही डूब जाता है, इसी प्रकार आम्रवरूपी छिद्रों से कुदर्शनादियुक्त कुधर्म नौका में बैठे होने के कारण वे अज्ञानान्ध व्यक्ति भी संसार-सागर से पार न होकर मझधार में ही डूब जाते हैं।' सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप, इन चारों का समायोग ही मोक्षमार्ग __'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है-(सम्यक्) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप-इन चारों के समायोग को सत्य के सम्यक् द्रष्टा जिनवरों ने मोक्ष का मार्ग बताया है। 'दर्शनपाहुड' में भी कहा है-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्तप और सम्यक्चारित्र, इन चारों के समायोग से मोक्ष होता है, ऐसा जिन-शासन का दर्शन है। _ 'तत्त्वार्थसूत्र' में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, तीनों के समन्वित रूप को मोक्षमार्ग कहा है। सम्यक्तप सम्यक्चारित्र में ही अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि वह सम्यक्चारित्र का ही अंग है। 'प्रवचनसार' के अनुसार-“तीनों की युगपद्ता (एकता) ही मोक्षमार्ग है।" । ___ आशन यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्ष का मार्ग हैं, यही बताने के लिए 'तत्त्वार्थसूत्र' में 'मोक्षमार्गः' ऐसा एकवचन का निर्देश किया गया है। अतः ये तीनों पृथक्-पृथक् रहें तो मोक्षमार्ग नहीं होता। 'राजवार्तिक' में एक उदाहरण देकर समझाया है-किसी औषध का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए जैसे उस पर श्रद्धा (विश्वास), ज्ञान और सेवनरूप क्रिया, तीनों आवश्यक हैं, उसी प्रकार मोक्षरूप फल की प्राप्ति के लिए उसके मार्ग के प्रति श्रद्धा, ज्ञान और आचरण (चारित्र), इन तीनों का एक साथ होना आवश्यक है। १. सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ११ (मार्ग अध्ययन), गा. २५-३१, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), . पृ. ३९५-३९७ २. . (क) नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। ___एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं॥ -उत्तराध्ययनसूत्र २८/२ (ख) णाणेण दंसणेण य, तवेण चरियेण संजमगुणेण।। चउहिं पि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो॥ -दर्शनपाहुड, मू. ३० ३. (क) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. १, सू. १ (ख) सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्गः उपायः न तु मार्गाः। . . . . . इत्येकवचन-प्रयोग-तात्पर्य-सिद्धः। -न्यायदीपिका ३/७३/१/३ (ग) प्रवचनसार, मू. २३७ (घ) सर्वार्थसिद्धि १/१/७/५ (ङ) राजवार्तिक १/१/४९/१४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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