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________________ ॐ १५४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * इन चारों के समायोग से युक्त मोक्षमार्ग प्रशस्त भावमार्ग है। इसके विपरीत मिथ्याज्ञान-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि से युक्त की जाने वाली त्रिविध योग-प्रवृत्ति अप्रशस्त भावमार्ग है। प्रशस्त भावमार्ग को ही तीर्थंकर गणधरादि द्वारा प्रतिपादित तथा यथार्थ वस्तुस्वरूप-निरूपक एवं समस्त कर्मक्षय में या स्वरूपावस्थान में सहायक होने से सम्यक्मार्ग या सत्यमार्ग कहा गया है। तथैव यह प्रशस्त भावमार्ग तप, त्याग, संयम, समाधि, ध्यान, भावना आदि प्रमुख साधनाओं से युक्त होने से समस्त प्राणिवर्ग के, विशेषतः मनुष्यवर्ग के लिए हितकर, सुखकर, श्रेयस्कर, सर्वप्राणिरक्षक, नवतत्त्व-स्वरूप प्रतिपादक एवं नौ तत्त्वों में हेय, ज्ञेय, . उपादेय तत्त्वों को जानकर उपादेय तत्त्वों पर सम्यक् श्रद्धापूर्वक दृढ़ता का प्रतिपादक एवं अष्टादशसहस्र शीलगुणपालक साधुत्व के आचार-विचार से ओतप्रोत है। इसके विपरीत अन्य तीर्थकों या कुमार्गग्रस्त पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील आदि स्वयूथिकों द्वारा स्वच्छन्दमतिकल्पित तथा सेवित मार्ग अप्रशस्त भावमार्ग है, वह एक प्रकार से संसारमार्ग है, सर्वकर्मक्षयकारक मोक्षमार्ग नहीं है।' प्रशस्त भावमार्ग (मोक्षमार्ग) की पहचान के लिए १३ पर्यायवाची शब्द नियुक्तिकार ने इसी प्रशस्त भावमार्ग (मोक्षमार्ग या सत्यमार्ग) की पहचान के लिए इसके १३ पर्यायवाचक शब्दों का निरूपण किया है-(१) पंथ (मोक्ष की ओर ले जाने वाला पथ), (२) मार्ग (आत्म-परिमार्जक), (३) न्याय (विशिष्ट स्थान प्रापक), (४) विधि (सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान का युगपत्प्राप्तिकारक), (५) धृति (सम्यग्दर्शनादि से युक्त सम्यक्चारित्र में स्थिर रखने वाला), (६) सुगति (सुगति या उत्तम गतिदायक), (७) हित (आत्मा की पूर्ण शुद्धि के लिए हितकर), (८) सुख (आत्मिक अव्याबाध सुख का कारण), (९) पथ्य (मोक्ष के लिए अनुकूल मार्ग), (१०) श्रेय (११वें गुणस्थान के चरम समय में मोहादि उपशान्त होने से श्रेयस्कर), (११) निवृत्ति (जन्म-मरणादिरूप संसार से निवृत्ति का कारण), (१२) निर्वाण (चार घाति और चार अघातिरूप अष्टविध कर्मों का सर्वथा क्षय तथा केवलज्ञान-वीतरागतादि प्राप्त होने से परम शान्तिकारक), और (१४) शिव (शैलेशी-निष्कम्प) अवस्था प्राप्त होने से १४वें गुणग्थान के अन्त में मोक्षपदप्रापक)। १. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति, श्रु. १, अ. ११. गा. १०७-११० (ख) वहीं, शीलांक वृत्ति, पत्रांक १९६ (ग) वही, श्रु. १. अ. ११, विवेचन (आ. प्र. म.. व्यावर) के प्राथमिक से भाव ग्रहण. पृ. ३८५ २. (क) वही, श्रु. १. अ. ११. गा. ११२-११५ (ख) वही, श्रु. १. अ. ११. विवेचन (आ. प्र. म.. व्यावर) के प्राथमिक से भाव ग्रहण. पृ. ३८६ (ग) वही, शीलांक वृत्ति, पत्रांक १९७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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