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________________ ॐ १५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ . परन्तु जैनदर्शन की दृष्टि में ऐसा व्यक्तिगत मोक्ष सम्भव नहीं है। अरविन्द-मान्य महामानव या अतिमानव बनने की प्रक्रिया (पापकर्मबन्ध से रहित) विपुल पुण्यराशि उपार्जित करने को प्रक्रिया है। जैनदर्शन-सम्मत मोक्ष की साधना व्यक्तिगत पुरुषार्थपरक है। प्रत्येक व्यक्ति ही अपने-अपने पुरुषार्थ द्वारा समस्त सांसारिक वासनाओं, कामनाओं, राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि से ऊपर उठकर सम्यग्ज्ञानादि की उत्कृष्ट साधना द्वारा अष्टविध कर्म-मल-कलंक का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं और शाश्वत स्थान में स्थित हो जाते हैं।' आत्मा का स्वरूप में अवस्थान भावमोक्ष तथा कर्मों से पृथक्त्व द्रव्यमोक्ष प्रायः सभी दर्शनों का मोक्ष स्वरूप है-सांसारिक सुख-दुःख से आत्मिक-सुख की ओर प्रस्थान करना, जोकि अव्याबाध हो, दुःखों से अस्पष्ट हो। निषेधात्मक रूप में मोक्ष है-सर्वदुःखों से मुक्ति प्राप्त करना। दुःख या दुःखों के कारण क्या हैं ? द्रव्य-भावकर्म, नोकर्म तथा राग-द्वेष-मोह-कषाय आदि सब दुःखों के कारण हैं। अतः आते हुए नये कर्मों को रोकना और पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने से आत्मा की विशुद्धि होती है, वही सुख है, जो संवर-निर्जरा से प्राप्त होता है। इसीलिए द्रव्यसंग्रह में द्रव्य-भावमोक्ष का लक्षण बताया गया है-समस्त कर्मों के क्षय का हेतुभूत आत्म-परिणाम अथवा आत्मा का अपने स्वरूप में अवस्थान भावमोक्ष है, जबकि आत्मा का समस्त कर्मों से पृथक् होना द्रव्यमोक्ष है। मोक्ष कोई स्थान-विशेष नहीं साधारणतया लोग यह समझते हैं कि नरक और स्वर्ग की तरह मोक्ष भी किसी स्थान-विशेष का नाम है; किन्तु मोक्ष कोई स्थान-विशेष नहीं है। 'योगवाशिष्ठ' के अनुसार-मोक्ष न तो आकाशं की पीठ पर है, न ही पाताल में है, न ही इस भूमि पर है। किन्तु वह सर्वकर्ममुक्त आत्मा का विशिष्ट पर्याय है। अर्थात् सर्वकर्ममुक्त आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होना मोक्ष है। सिद्ध-मुक्तात्मा सर्वकर्ममुक्त होने पर लोक के अग्र भाग में विराजमान होते हैं। इसलिए इसे सिद्धगति नामक स्थान कहते हैं। मुक्तात्मा वहाँ सहज भाव से स्थित होते हैं। अगर उसी स्थान को मोक्ष माना जाए, तो उस स्थान में सिद्धों के सिवाय अन्य जीव भी हैं, रहते हैं, उनके लिए वह स्थान मोक्ष नहीं कहलाता। अतः मुक्तात्मा की वहाँ परम पवित्र शुद्ध अवस्था या स्थिति के कारण ही वह मोक्ष कहलाता है। .. १. (क) 'जैनदर्शन और संस्कृति' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ७ (ख) स्वात्मलाभस्ततो मोक्षः कृत्स्न-कर्मक्षयान्मतः। निर्जरा-संवराभ्यां तु सर्व-सद्वादिनमिह॥ -आप्तपरीक्षा ११६ (ग) सव्वस्स कम्मणो जो खमहेदूअप्पण्णे हु परिणामो। णेयो सो भावमुक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुहभावो॥ -द्रव्यसंग्रह ३७ २. न मोक्षोनभसः पृष्ठे, न पाताले, न भूतले। -योगवाशिष्ठ ५/७३/३५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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