SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष: क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? १४७ ब्रह्म है (परमात्मा) है।' इस दर्शन में अविद्या को ही बन्ध का प्रमुख कारण माना है, जबकि जैनदर्शन अविद्या (मिथ्यात्व ) के साथ अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को कर्मबन्ध के कारण मानता है। अद्वैतवेदान्त में मोक्ष प्राप्ति में एकमात्र ज्ञान को ही कारण माना है, जबकि जैनदर्शन का कहना है कि सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के बिना एकमात्र ज्ञान से शुभाशुभ कर्म क्षय नहीं हो सकते, मिथ्यात्व आदि कारण नष्ट नहीं हो सकते। जैनदर्शन शंकर के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हैं कि जीव और ब्रह्म में तादात्म्य है। जीवों का नानात्व सत्य नहीं है, यह भी जैनदर्शन- सम्मत नहीं है । फिर भी अद्वैतवेदान्त में माना गया है कि जीव का मोक्ष स्वयं के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान में है। अर्थात् उसका ब्रह्म से नितान्त अभेद है, इस ज्ञान में है। मोक्ष की प्राप्ति किसी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति या प्राप्ति नहीं है। वह अपने वास्तविक स्वरूप का ही लाभ है। मोक्ष का किसी कर्म (क्रिया) से कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्म (क्रिया) का परिणाम किसी वस्तु में विकार की उत्पत्ति, किसी वस्तु की शुद्धि या अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति हो सकता है; किन्तु मोक्ष का प्रयोग इनमें से किसी विकल्प के लिये नहीं किया जा सकता। जो वस्तु उत्पन्न होती है, वह नाशवान होती है, मोक्ष नाशवान नहीं है। मोक्ष विकार भी नहीं है कि उसकी शुद्धि की जा सके, वह स्वतः शुद्ध हैं। मोक्ष कोई प्राप्य भी नहीं है । बाह्य पदार्थ को प्राप्त किया जाता है। मोक्ष तो . आत्मा (ब्रह्म) का अपना ही पदार्थ है । वह नित्यप्राप्त है, नित्य है, शाश्वत है। उसका ब्रह्म के साथ ऐक्य है। निश्चयनय की दृष्टि से यह कथन कथंचित् ठीक है, परन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से यह कथन उपादेय नहीं हो सकता। व्यवहारदृष्टि से संसारी जीव प्रारम्भ से ही ब्रह्म, शुद्ध, मुक्त नहीं है; न ही वह ब्रह्म का अंश है। यदि संसारी जीव प्रारम्भ से ही ब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है तो उसे सम्यग्ज्ञानादि की या उनके विविध धर्मांगों की साधना करने की क्या आवश्यकता है? अतएव 'जैनदर्शन' का कथन हैसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप आदि की साधना से समस्त कर्मों और कर्मों के चतुर्विध 'बन्धों का अभाव होना मोक्ष है, वह भी स्वकीय पुरुषार्थ से ही हो सकता है, किसी की कृपा से या दासता से नहीं। आशय यह है कि कर्मों से लिप्त मनुष्य सम्यग्दर्शनादि चतुष्टय में स्व-पुरुषार्थ से ही शुद्ध, बुद्ध, मुक्त पर-ब्रह्म (परमात्मा) हो सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। फिर उसे मोक्ष के लिये किसी दूसरे पर ब्रह्म आदि में लीन होने, उनकी कृपा प्राप्त करने या उनका अंश बनने की आवश्यकता नहीं रहती । - पुण्डकोपनिषद् ३/२/९ १. ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। २. 'भारतीय दर्शन में मोक्ष- चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. १५७, १७५ ३. (क) वही, पृ. १५७ (ख) सम्यग्दर्शनादिहेतु-प्रयोग-प्रकर्षे सति कृत्स्नस्य कर्मणश्चतुर्विध-बन्ध - वियोगो मोक्षः । -तत्त्वार्थ. वार्तिक १/४/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy