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________________ ॐ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? @ १३३ . पाकर भी जो मनुष्य शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव प्राणियों और निर्जीव पर-पदार्थों के प्रति राग-द्वेष, आसक्ति, घृणा, प्रियता-अप्रियता आदि द्वन्द्वों में ही उलझा रहता है, तीव्र-क्रोधादि कषायों के भँवरजाल में ही फँसा रहता है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग; इन शुभ-अशुभ कर्मबन्ध के कारणों से किंचित भी छुटने का पुरुषार्थ नहीं करता, तत्पश्चात उससे होने वाले शुभाशुभ कर्मवन्ध, कर्मोदय तथा कर्मफलभोग आदि की लम्बी संसार-परम्परा में जीता है और उस दौरान नाना जन्मों में प्राप्त होने वाले कष्ट, संकट, यातनाएँ, पीड़ाएँ, चिन्ताएँ, उद्विग्नता, आकुलता, शोक, भय आदि नाना दुःखों से संकुल जीवन बरबस जीने में सुखानुभव करता है। जबकि वे वैषयिक सुख या सांसारिक सुख भी क्षणिक हैं, सुखाभास हैं, दुःख-बीज हैं। वह सांसारिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता है, फिर भी उसके काल्पनिक सुख की प्यास नहीं मिटती। और वे सांसारिक सुख भी सभी मनुष्यों को कहाँ नसीव होते हैं ? शरीरादि को लेकर मनुष्य-जीवन में भी कहाँ सबको निराकुल सख है ? कहाँ सर्वत्र आनन्द है, मनोरंजन है? प्रत्यक्ष अनुभव होने पर भी शरीरादि से रहित होने, देहाध्यास छोड़ने, कायोत्सर्ग करके मोक्ष में जाने और जीने का वह शरीरासक्त मानव दुःखजनक समझता है। मनुष्य का शरीर से इतना लगाव हो गया है कि पद-पद पर वह शरीरासक्त होकर जीता है। मृत्यु का नाम सुनते ही डरता है, कॉपता है, रोता-चिल्लाता है। शरीर के प्रति इतना मोह-ममत्व है कि मरते दम तक वह इसे छोड़ना नहीं चाहता। मोक्ष में अशरीरी होकर रहने की कल्पना भी उसे नहीं सुहाती। अतः मोक्ष को बाहर मत देखो। शारीरिक सुख-सुविधाओं से मोक्ष के अनन्त अव्याबाध सुखों की तुलना मत करो। मोक्ष आत्मा की ही शुद्ध अवस्था-विशेष है। 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार-"सिद्ध-मुक्तात्मा समस्त दुःखों को पार कर चुके हैं। (शरीर से रहित होने से) जन्म, बुढ़ापा और मृत्यु के बन्धनों से वे विमुक्त हैं और निर्बाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।" मोक्ष में न संकल्प-विकल्प हैं, न राग-द्वेष, काम-क्रोधादि विभाव या विकार हैं, न ही इच्छाएँ, चिन्ताएँ, उद्विग्नताएँ हैं, बाह्य (पर) पदार्थों का न तो ग्रहण है, न त्याग है। न ही उनमें इष्टानिष्टता का भाव है। मोक्ष में एकमात्र ज्ञायकभाव है, जिसमें सर्वप्राणी केवल प्राणिमात्र हैं। वहाँ न कोई पुत्र है, न कोई पिता, न चाकर है, न कोई ठाकुर है। बहन-भाई, पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, शत्रु-मित्र आदि के रिश्ते-नाते भी वहाँ कतई नहीं हैं। वहाँ न कोई छोटा है, न बड़ा, न कोई उच्च है, न कोई नीच। न कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य आदि भेद हैं और न देव, मनुष्य, तिथंच आदि पर्यायमूलक विकल्प हैं। मोक्ष में एकमात्र आत्मा ही रहती है, वहाँ आत्मा का ही ज्ञान, आत्मा का ही दर्शन, आत्मा या आत्म-भावों में रमण अथवा आत्म-स्वरूप में लीन रहना है। वहाँ आत्मा के निजी गुण अवश्य हैं-समता, वीतरागता, शान्ति, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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